सोमवार, 10 मई 2010

ग्रामीण भारत को जबरन हांकने का प्रयास खतरनाक दाव है./ज्ञान सिंह

ग्रामीण भारत को जबरन हांकने का प्रयास खतरनाक दाव है.
ज्ञान सिंह
देश को एक खास दिशा में हांक कर ले जाने में लगे हुए लोगों ने ग्रामीण भारत में घर-परिवार की प्रतिष्ठा के भाव को अर्थहीन बोझ बताने का अभियान चलाया हुआ है. स्वजनों के बीच ‘प्रेम’ प्रसंगों पर एतराज को ग्रामीण आबादी में पिछड़ेपन व सामंती अवशेष बता कर लताड़ने वाला यह अभियान कुछ नयेपन का झण्डाबरदार बन कर सामने आ रहा है. इसके लिए जिस शब्दावली का प्रयोग हो रहा है उसमें एक शब्द परिवार की आWनर अर्थात प्रतिष्ठा का कुछ इस तरह बार-बार प्रयोग हुआ है जिससे यह घ्वनि निकल कर छा गई है कि यह भाव इस आबादी पर बेमतलब का बोझ है जिससे जितना जल्दी हो छुटकारा मिलना चाहिए और यदि कोई इसमें +रुकावट डालने की कुचेष्टा करे तो कानून उसका इलाज करे! यह अभियान अब अपने चरम पर है.
इस अभियान की एक विडम्बना है; येे लोग जनतन्त्र को अपने ही रंग में परिभाषित करने पर उतारू हैं. इन आधुनिकता प्रेमियों को एतराज है कि एक पूरा समुदाय स्वजनों की परिभाषा उनकेे कहने पर बदलनेे को क्यों तैयार नहीं है. अपनी ताकत का नशा इस कद्र है कि ये लोग पूरे समुदाय विशेष को ही अपनी जीवन-पद्धति पलटने का आदेश देने पर पिल पड़े है! ऐसे में कौन जनतन्त्र और किस कानून के राज की बात हो रही है, समझना कठिन है. यह भी सम्भव है कि कहीं इनका पूर्वाग्रही दम्भ झलक रहा है जो इन्हें दूसरों के लिए जीवनशैली निर्धारित करने को उकसा रहा है. उनका आग्रह है कि देश को हांकने का अवसर जब हाथ लग गया तब उनकी दी हुई परिभाषा को सब पर लादना ही जनतन्त्र है. उनकी दलील में गजब अन्तरविरोध है कि व्यक्ति विशेष की स्वछंदता को समूह की स्वछंदता पर अधिमान देने को जनतन्त्र की आत्मा बताने पर तुलेे हुए है.
कितनी अनुजा भट्ट हैं जो मान के बदले जान के अर्थ को समझती हैं या ग्रामीण भारत के जीवन से परिचित हैं. एक ओर ग्रामीण अदालतों के गठन का ढोल पीटा जा रहा है तो दूसरी ओर उन्हीं ग्रामीणों द्वारा मिल बैठ कर अपने विवाद निपटाने की पद्धति को सामंती कह कर कोसने की परिपाटी बन गई है! इन भद्र पुरुषों की निगाह में वेतनभोगी जज बड़ा न्यायप्रिय है और चाचा-ताÅ बात सुलटाने बैठते हैं तो भाड़े की व्यवस्था पर कुफ्र टूट पड़ता है. लगता है अपनी ही समझ के दम्भ में खुले मन से देश की असलियत को देखना बंद ही कर दिया है कि ७० प्रतिशत आबादी का जीवन किस तरह चल रहा है. इस आयातित दृष्टिदोष पर रहम तो नहीं ही किया जा सकता है.
बीते छह दशकों में जनतन्त्र एवं संविधान की जिस तरह की मनमानी व्याख्या देश में हुई है उसका परिणाम है कि लोक कल्याण की बात करते करते संविधान के अनुच्छेद ३८ की अभिवृद्धि और समानता की कामना आमजन के लिए कोरा सपना है और गैरबरारी को ही विकास का मार्ग बताया जाने लगा है. बहाने जो हों, व्यक्ति स्वतन्त्रता के स्थान पर प्रशासन की मनमानी का साम्राज्य ब्रिटिश शासन से भी खतरनाक स्तर पर जा पहुंचा है! उछृंखल आचरण को प्रेमियों की आजादी बताने वालों को देश में व्यक्ति की दूसरी स्वतन्त्रताओं के दायरे की सिकुडन नहीं दिखाई देती, उनका सरोकार कथित प्रेम तक सिमट कर किस मकसद से रह जाता है, यह कम दिलचस्प पक्ष नहीं है.
स्वछंद ‘प्रेम’ की वकालत अपनी जगह, निश्चय ही अभियान का लक्ष्य घर-गृहस्थी यानी कुटुम्ब-परिवार नामक संस्था को घेरना है जिसके विधि-विधान के दायरे में व्यक्ति फिलहाल बंधा है. यह व्यक्ति के फलने की विधा अथवा परिस्थिति है, इसे बंधन बताना मनुष्य को अकेला रख कर शिकार करने की चालबाजी है. घर-गृहस्थ व परिवार को एकजुट रखने वाला यह विधान न रहे तो परिवार की कल्पना एक मिनट में धाराशायी होगी, इस तथ्य से सभी परिचित हैं.
घर-गृहस्थ अपने सदस्यों को लेकर इस आचरण-विधि के बारे में अब तक स्वायत रहा है. किन्तु उसकी यह स्वायतता आधुनिकता प्रेमियों को फूटी आंख नहीं सुहाती है. राज का दखल इस स्वायतता को पूरी तरह नष्ट करने की मंशा रखता है. यह संस्था समाप्त हो, यह उन लोगों का आदर्श है जो पश्चिम की औद्योगिक सभ्यता में अपना भविष्य देख रहे है. किन्तु, वे इस तथ्य से परिचित हैं कि यह काम इतना जल्दी होने वाला नहीं है. इसलिए उनका सामयिक लक्ष्य इस संस्था को भोथरा करना है.
जो हो रहा है वह अचानक घटित हुई दुर्घटना नहीं है. स्वतन्त्रता आन्दोलन की पूरी आकांक्षाओं पर पानी फेरते हुए संविधान अर्थात शासन-विधान की सोच से गांव व उसके परिवार को खारिज कर देने का फैसला उस समय की सरकार ने वर्ष १९४८ में ही कर लिया था और उसकी जगह औद्योगिक सभ्यता की आदर्श इकाई एकल व्यक्ति को अपने शासन के क्रियाकलाप का आधार स्वीकार करके खुली उद्घोषणा कर दी गई थी जिस अधिकार की दुहाई देकर घर-परिवार की प्रतिष्ठा को सामंती अवशेष बताया जा रहा है. पुरानी कहावत है कि कुत्ते को गाली दो और गोली से उडाओ! अस्थाई सरकार की ओर से उस समय के विधि मन्त्री ने संविधान का प्रारूप पेश करते हुए ४ नवम्बर १९४८ को बता दिया था कि आजादी के बाद का भारत एकल व्यक्ति को अपनी शासन की मूल्यवान इकाई मान कर काम करेगा. कड़े विरोध के बावजूद यह मान्यता ही स्वतन्त्र भारत की शासन-व्यवस्था की आधारशिला बनी ओर इसपर धडल्ले से अमल हुआ है. व्यक्ति-स्वतन्त्रता की अवधारणा अब मनुष्य के अस्तित्व के आधारसूत्र, घर-गृहस्थ, परिवार-कुटुम्ब को ही नकारने का नगाड़ा बजा रही है. संविधान सभा के एक सदस्य पी.एस. देशमुख ने तो उस दिन कह ही दिया था कि इस प्रस्तावित खांचे में संसदीय जनतन्त्र वास्तव में यथास्थिति को कायम रखने वाला दस्तावेज है और विभिन्न चालू संस्थागत ढांचों को बरकरार रखने का यह प्रयास है.
वैसे भी संवैधानिक मान्यताओं पर अमल के ६० साल की अवधि में ग्रामीण भारत की यह परिवार-कुटुम्ब नामक संस्था जरजर अवस्था में पहुंची खड़ी है. घर-परिवार अब गांव का अभिन्न अंग नहीं बच गया है; न खंडित गांव पहले की तरह उसकी रक्षा में आगे आता है. स्वायत एवं स्वावलम्बी गांव गणराज्य काल में बस्ती व गांव शासन की इकाई में परिवार का अर्थ उसके अंग के रूप में था तो ब्रिटिश शासनकाल में भी बहुत सीमा तक यह समझ बची रही. किन्तु स्वतन्त्र भारत में यह संस्था अब एकल और निस्सहाय है. उसका बचाव भाईचारे की पंचायतें करती हैं, तब तक वह सांस ले रहा है. यही कारण है कि ताजा अभियान का लक्ष्य सीधे परिवार पर निशाना न साध कर भाईचारे की अवधारणा तथा भाईचारे की संस्थाओं को गैरकानूनी घोषित करवाने पर आ टिका है.
अपनी सब नयी पुरानी कमजोरियों के बावजूद भाईचारे की पंचायतें न हों तो परिवार-कुटुम्ब स्वयं अर्थहीन लोथड़ा बन जायेंंगे. इनके युवक-युवतियों को सांस्Ñतिक तौर पर इस उलटफेर के वास्ते पहले ही गांठ लिया गया है! साठ साल में प्रचार-प्रसार एवं शिक्षा-दीक्षा का यही फल उसे मिला है. असहाय व्यक्ति और असहाय परिवार ही वह आदर्श स्थिति है जिसके बलबूते वर्तमान व्यवस्था निर्बाध चल सकती है. ताजा अभियान को चलाने वाले सम्भवत: इस सच को ठीक से पहचानते हैं.
लगभग दो दशक पहले जब जगतीकरण व उदारीकरण के अभियान को मात्र आर्थिक क्षेत्र में ढांचागत परिवर्तन की जरूरत के रूप में देखा गया था उस समय अधिकतर आबादी को अहसास नहीं था कि यह अभियान उनके पारिवारिक-संांस्Ñतिक जीवन को भी पलट कर रखने की मंशा रखता है. अपनी परिपक्वता के ताजा दौर में पहुंच कर और इसे अपरिवर्तनीय ;पततमअमतेपइसमद्ध बनाने की खातिर ही ग्रामीण भारत के शहरीकरण का लक्ष्य घोषित हुआ है. यह अकारण नहीं है और जिस तरह से परिवार की प्रतिष्ठा व सम्मान की अवधारणा को मलियामेट करने का प्रश्न इस अभियान में जोड़ लिया गया है उससे अनेक प्रश्न खड़े होते हैं.
स्पष्ट है कि अपने वर्तमान से कोई संतुष्ट नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. असंतुष्टि बेहतर कल के लिए प्रयास की आस जगाती है. यह जीवन है. किन्तु यह वर्तमान सब के लिए एक बराबर नहीं है, खंडित है, तो बदलाव की प्रÑति भी एक जैसी नहीं है. इस वर्तमान के लाभार्थी भी परिवर्तन हेतु जी-जान से जुटे हुए हैं. बीते दो दशक से उनके प्रयास अपने वर्तमान को अधिक लाभकारी बनाने के लिए जारी है. इसके लिए प्रयाप्त साधन एवं शक्ति के वे धनी हैं. फिर दूसरी ओर इस वर्तमान की मारक चोट से परेशान अवाम हैं जिनकी जरूरत एक खास तरह के परिवर्तन की मांग करती है ताकि उनका नारकीय जीवन बदले. ये लोग आज निहत्थे एवं असहाय बने खड़े हैं. उन्हें वैचारिक तौर पर भी लाचार बनाने के प्रयास चरम पर हैं. इनमें एक बिंदु अपने जीवनकर्म को चलाने की स्वयतता तथा रोटी व प्रतिष्ठा के रिश्ते का सवाल है तो दूसरा प्रश्न व्यक्तिवाद एवं समूह के बीच विकल्प का है. इन लोगों के लिए आवश्यक बदलाव की राह में चालू राज-व्यवस्था सब से बड़ी रुकावट है. यथास्थिति का यह अत्याधिक शक्तिशाली आधार औजार है और.यथास्थिति ही वंचितों के लिए मौत है.
इस सन्दर्भ में पहला प्रश्न नागरिकों की अपने जीवन को नियन्त्रित कर चलाने में स्वयतता का है. यहां दो पुरानी अवधारणाओं का जिक्र उपयुक्त होगा. राज की परिकल्पना नागरिकों के अस्तित्व से बाद की है. दूसरे, राज की शक्ति का स्त्रोत स्वयं नागरिक हैंं; स्वामी राज नहीं, मिल कर नागरिक हैं. किन्तु बीसवीं सदी आते आते राजसत्ता की शक्ति एवं नागरिकों के जीवन में उसका दखल बेहद खतरनाक दर्जे पर जा पहुंचा है. राज मालिक की स्थिति बना कर रखने पर तुला दिखाई पड़ता है. इसमें संगतपूर्ण संतुलन को पुन:परिभाषित करने का समय आ गया है, बल्कि समय हाथ से निकलता जा रहा है. यहां औद्योगिक सभ्यता की मान्यता से सर्वथा विपरीत ‘व्यक्ति’ स्वतन्त्रता का अर्थ मनुष्य की जीवनद्धति के अनुरूप उसके घर-परिवार की स्वतन्त्रता का प्रश्न है. जिसमें परिवार से बाहर व्यक्ति की परिकल्पना अकल्पनीय है. परिवार को चलाने व नियन्त्रि+त करने में वह स्वयात हो. उसकी आजादी प्रैस की आजादी से कम महत्व की चीज नहीं है जिसकी स्वायतता को अक्षुण रखने पर सब सहमत हैं. परिवार को गुलाम और प्रैस को आजाद रखने की सोच रुग्न, अपंग एवं दुर्गंंधपूर्ण है.
जनजीवन की स्वायतता का एक अन्य आयाम रोटी व प्रतिष्ठा (आWनर) के बीच का विवाद है. दोनों में से जरूरत के समय किसको प्राथमिकता देकर चला जाए अथवा प्रतिष्ठा का प्रश्न क्या मनुष्य के लिए बेकार का बोझ है जिसे बिसारने में सब का भला ही होने वाला है? मानव जीवन में उसके घर-परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न क्या इतना गौण है कि जब चाहा इसे कुर्बान करने की नसीहत उपयोगी दलील बन जाए? यह प्रश्न अब फिर सामने आ खड़ा हुआ है. इतिहास साक्षी है कि प्रतिष्ठा के सवाल पर साम्राज्य तक ढहे हैं. इस सवाल पर समाज को एक सीमा से बाहर जा कर ललकारने का अर्थ कम खतरनाक साबित नहीं होगा, यह याद रखने वाली पूर्व चेतवानी है. फिर, सामाजिक परिवर्तन की जरूरत के सन्दर्भ में इस प्रश्न का महत्व अलग गम्भीरता को लिए हुए है. इधर, कुछ समय से बात इस तरह उठ रही है कि सम्मान का भाव दरकिनार हो तो देश आधुनिक बनने में समय नहीं लगाएगा; यह फिजूल का बोझ है जिसे गंवार लोग बेमतलब सिर पर उठाए घूम रहे हैं! ‘स्यानों’ का यह प्रलाप कुछ अधिक बेसुरा होता जा रहा है जिस पर चर्चा होनी चाहिए.
बहुत पुरानी बात नहीं है; उन्नीसवीं व बीसवीं सदी में रोटी व इज्जत के बीच प्राथमिकता को छांटने के सवाल पर दार्शनिकों में भी जम कर गम्भीर बहस चली. अस्तित्व की खातिर रोटी के सवाल को प्राथमिकता देने का बिंदु मानव समाज में बहुत समय से मंथन का विषय रहा है. एक वर्ग चाहता रहा है कि मनुष्य यह स्वीकार करके अपनी जिंदगी चलाता चले कि उसकी प्राथमिक जरूरत रोटी का संघर्ष है. दूसरी ओर यह समझ उभरी कि मनुष्य जब मनुष्य बना तब से उसकी अस्मिता का सवाल प्राथमिकता ले चुका है और रोटी का संघर्ष उसके लिए मानव अस्मिता की रक्षा के साथ गुंथ गया है. इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है. कुछ अर्थ में सिर Åंचा रख कर चलने का गौरव प्राथमिक है. अन्य प्राणीजगत के समान रोटी को प्राथमिकता पर रखने से अस्तित्व का संघर्ष उसे जंगली युग में धकेल देगा जहां से निकल कर वह आगे आया है. तर्क है कि रोटी तक मनुष्य की चिंता को सीमित रखने का प्रयास उस को फिर से जंगली बनाने हेतु एक कोरे चक्रांत से अधिक कुछ नहीं ठहरता.
उन्नीसवीं सदी में माक्र्स की चिंताओं को गरीबी का दर्शन कह कर कटाक्ष के जरिये दरकिनार करने की बात को दर्शन की गरीबी बता कर खारिज कर दिया गया था. वंचितों को एक मुक्ति-दर्शन की नींव रखने के अपने प्रयास में माक्र्स की चिंता में मानव के सम्मान की लड़ाई को ठोस अर्थ मिला था. निर्णायक तौर पर यहां से मनुष्य रोटी की लड़ाई के दायरे से बाहर आया और दोनों बिंदुओं की सीमा रेखाओं को सदा के लिए तय कर लिया गया. उसकी रोटी की लड़ाई अन्य प्राणियों के दायरे से बाहर आ गई थी. किन्तु, लगता है अब सम्मान एवं प्रतिष्ठा के सवाल का अवमूल्यन करने वाले इस अभियान का लक्ष्य वैचारिक इतिहास के पहिये को पीछे धकेलने का है. वंचितों में आत्म-सम्मान का भाव मिटा कर अपने लिए जमीन सुरक्षित रखने का यह प्रचण्ड अभियान उन्हें रोटी की खातिर रैंगने वाले पशु में ढालने की चाह है.
अंग्रेजी भाषा में जिस भाव के लिए आWनर, रिस्पेक्ट, डिग्निटि आदि शब्दों का प्रयोग होता है उसे हम लोग इज्जत, आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा, गौरव या गरिमा मानते हैं. यह भाव मनुष्य के अपने अस्तित्व का अंग है. यह भाव उसके अस्तित्व का अंग एक दिन में नहीं बना है, उसकी चिंतन प्रक्रिया के फलस्वरूप लम्बे जीवन-संघर्ष से उपजी सोच-समझ का फल है. यह अवधारणा सार्वजन्य है. इधर, भारत में चूंकि मनुष्य घर-गृहस्थ एवं कुटुम्ब की अभिन्न प्रक्रिया का प्राणी है, औद्योगिक सभ्यता की तरह जबरन घड़ा गया एकल व्यक्ति नहीं जो निपट लूट के बल पर अपने को आधुनिक कह कर खुश है. यहां मनुष्य की गरिमा का अर्थ उसके घर-गृहस्थ की गरिमा से जोड़ कर देखने परखने का अर्थ अनर्थ ही है.
पश्चिमी दुनियां में घर-गृहस्थ अथवा कुटुम्ब की अवधारणा को औद्योगिक सभ्यता ने घ्वस्त करने में सफलता पा ली है, मनुष्य वहां अधिक से अधिक रैनबसेरे का एकल व्यक्ति है जिसकी कुल प्रक्रिया में मिलवर्तन, भाईचारा, सहभागिता व सामूहिकता कहीं नहीं है. समाज गायब है. अत: वहां एकल व्यक्ति की गरिमा को सर्वोपरि देखने का रिवाज बन गया है. उसकी नकल करके भारत में गरिमा के प्रश्न को परखना सम्भव नहीं है. जो लोग यह प्रयास कर रहे हैं उनकी नीयत खोटी है. उसे किसी भी तरह सार्वजन्य सच स्वीकार नहीं किया जा सकता है. देश की समस्याओं का हल अपनी माटी से खोजना होगा, उसके लिए ब्रिटिश अथवा अमरीकी चश्में से राह नहीं निकलेगी. व्यर्थ कष्ट हाथ लगेेगा. दो दशक पहले चालू किया अमरीकीकरण अभियान बांझ प्रयास साबित होने वाला है. जोर-जबर का परिणाम सदा सुखद नहीं रहता है. इतिहास की यह सीख याद रखने लायक है, अन्यथा चोट गहरी पड़ती है.
ग्रामीण भारत को हथियाने की मुहिम शिख्र पर है. उसकी धरती, जंगल, जल तथा खनिज सम्पदा पर कब्जा जमाने की जंग जारी है. पश्चिमी दुनियां ने पहले इस पर छल-कपट और सैनिक बल से लम्बी अवधि तक वर्चस्व बना कर रखा. अब समझौतों की राह पकड़ी है. जहां इस यह संघर्ष है, साथ ही उसकी सामाजिक-सांस्Ñतिक विरासत को मिटाने का अभियान है जिससे पार पाने के वास्ते अस्मिता तथा अपने गौरव-गरिमा की लड़ाई का अपना महत्व है..
अपने अस्तित्व के संघर्ष में मनुष्य जीता है और जागता है. यह सही भी है. अन्य प्राणीजगत से अलग मनुष्य के अस्तित्व का अर्थ सम्मानपूर्वक जीने का हक है. मात्र उदरपूर्ति का सवाल उसका नहीं है. यही कारण रहा है कि वंचित ऐसी स्थिति की आकांक्षा+ रखते हैं जहां वे दूसरों के साथ मिलकर एक सहभागी समाज में सुख व शांति से फल सकें. इस सन्दर्भ में, व्यवस्था परिवर्तन का प्रश्न बेमायने नहीं है.

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