शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गोत्र खाप में विवाह का वैज्ञानिक आधार एवं जाट समाज की चिंताओं और समस्याओं का निराकरण/-रणबीर सिंह

गोत्र खाप में विवाह का वैज्ञानिक आधार एवं

जाट समाज की चिंताओं और समस्याओं का निराकरण

-रणबीर सिंह

पिछले बीस साल में हरियाणा और प”िचमी उत्तरप्रदे”ा में बसे जाट जाति कुछ गांवों में विवाह संबंधों की सामाजिक मान्यता और कानूनी वैधता को लेकर अनेक प्रकार के विवाद एवं हिंसक घटनाएं हुई हैं जिसने सभी को चिंता में डाल दिया है। ऐसी घटनाओं की उत्पत्ति के कारण भी हैं, उनके निराकरण के उपाय भी किये जाते हैं लेकिन फैसलों के तौर पर जो सामने आता है उसके परिणामस्वरूप:-

१. प्रभावित परिवार गैर-कानूनी पग उठाते हैं और हिंसा करते हैं, जिससे न केवल व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों जैसे कि जीने का अधिकार बल्कि मानवीय अधिकारों का भी उल्लंघन होता है।

२. फैसले लेने के लिये जाट जाति के प्रतिनिधियों अथवा चौधरियों को “ाास्त्रों, दे”ा के कानून, संविधान और वैज्ञानिक पहलुओं की जानकारी नहीं होती जिससे वे विवादास्पद मुíे की ठीक से जांच करने में अक्षम हैं और बहुधा गलत फैसले लेते हैं। लेकिन यह मानना कि वे मूर्ख अथवा अविवेकी हैं, सरासर गलत होगा। जानकारी के अभाव में वे स्थितियों का वैज्ञानिक वि”ले’ाण नहीं कर पाते, इसलिये बहुधा उनके फैसलों पर सवाल उठाये जाते हैं।

३. व्यक्तियों अथवा परिवारों द्वारा किसी भी कारण से की गई गलत कार्रवाई के परिणामस्वरूप खाप जैसी प्राचीन एवं पवित्र संस्था के बारे में गैर-जाट लोग असभ्य एवं दुराग्रही होने जैसी टिप्पणियां करते हैं। उनके फैसलों को अविवेकपूर्ण, ‘तालिबानी फतवा’ कहा जाता है। जन संचार माध्यमों के जरिये खाप जैसी प्राचीन एवं पवित्र संस्था को बदनाम किया गया है। इनके अलावा दे”ा की सर्वोच्च संस्थाओं में खाप के प्रति अपमानजनक रवैया दिखाकर अभद्र टिप्पणियां की जाती हैं और कहा जाता है इन्हें गैर-कानूनी घो’िात किया जाये।

यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि दे”ा के मध्य-प”िचमी और उत्तर-प”िचमी हिस्से में गुप्त काल से जारी खापों के स्वर्णिम इतिहास को वर्तमान मीडियाकर्मी दागदार बना रहे हैं। यह केवल एक खाप की प्रति’ठा या जाटों के कुछेक गांव का मसला नहीं है बल्कि दे”ा-विदे”ा में बसी समस्त जाट जाति के भवि’य और अस्तित्व का सवाल है जिस पर जाट जाति के बुद्धिजीवियों को न केवल गंभीरता से विचार करना होगा बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय घटनाओं की पुनरावर्ती को रोकने के लिये स”ाक्त एवं कारगर उपाय भी सुझाने होंगे। ऐसा नहीं है कि जाट जाति में उच्च ”िाक्षा प्राप्त, विवेकी और उच्च स्तरीय बुद्धिजीवी न हों लेकिन पिछले दो द”ाकों में हुई घटनाओं के समय उनकी चुप्पी और नि’िक्रयता के परिणाम स्वरूप एक तो खापों के अद्र्ध-”िाक्षित प्रतिनिधि अथवा चौधरी समाज में उत्पन्न विवाह संबंधी विवादों की सुनवाई के समय अक्षम सिद्ध हुए हैं दूसरा, जागरूकता के अभाव में प्रभावित परिवार कानून और खाप में बात उठाने की बजाय पहले ही अपने तात्कालिक फैसले लेकर हिंसक अथवा गैर-कानूनी कार्रवाई कर चुके होते हैं। खापों के चौधरियों के पास तो कोई विवाद तब पहंुचता है जब उन्हें अपने बचाव की चिंता सताने लगती है अथवा जब उन्हें अपनी गैर-कानूनी और हिंसक कार्रवाई के लिये खाप के समर्थन की जरूरत पड़ती है।

यदि पिछले बीस साल में हुई घटनाओं का केस-बाई-केस अर्थात प्रत्येक मसले के बारे में बारीकी से विचार किया जाये तो ज्यादातर मसलों को “ाांतिपूर्वक बैठ कर निपटाया जा सकता था। इन मामलों में खाप के चौधरियों की सहायता के लिये समाज विज्ञानी, आनुवं”िाकी वैज्ञानिक, वैज्ञानिक संस्थाएं और कानूनविद सुलभ हो सकते थे। लेकिन यह तो तब की बात है जबकि लड़का और लड़की के प्रभावित परिवारों के व्यक्ति बदले की अथवा किसी गैर-कानूनी तात्कालिक कार्रवाई को अंजाम न दें और यह निर्णय लें कि चाहे कुछ भी हो अब समस्त कार्रवाई की जिम्मेवारी खाप के चौधरियों की ही है। ऐसा इसलिये कि इन मामलों में दे”ा की अदालतें -नीचे से Åपर तक की सभी, कोई खास दखलअंदाजी करना पसंद नहीं करती। दे”ा में बहुत से ऐसे मामले रहे हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय तक ने यह कह दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम स्थानीय रीति-रिवाजों से Åपर नहीं है।

हिंदुओं में वर्ण व्यवस्था के अनुसार जिससे बाद में जातियां बन गईं विवाह संबंधों की स्थापना और विवाह योग्य युवक एवं युवतियों परस्पर पति-पत्नि जैसे संबंधों वाले इन मसलों के बारे में मुख्य आपत्तियांे का आधार क्या है और किस प्रकार की हैं:-

आपत्तियों का आधार

(अ) वैदिक काल के बाद ब्राãण काल की परंपराओं के अनुसार जिनकी स्थापना संभवत: गुप्तकालीन भारत से आरंभ हुई, यह स्थापित हुआ कि पिता की ओर से चार और माता की ओर से तीन पीढ़ियों का विवाह संबंंध के लिये त्याग करना होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस लड़के के लिये कन्या वर तय करना है उस लड़के के पर-पितामह द्वारा स्थापित कुल और कन्या वर की ओर से उसके पितामह द्वारा स्थापित कुल के बीच विवाह संबंधों की वर्जना होगी।

(आ) अन्तर्जातीय विवाह नि’ोध होगा लेकिन उच्च वर्ण का पुरु’ा समाज की सहमति से निम्न वर्ण अथवा जाति की कन्या से विवाह कर सकता है लेकिन निम्न वर्ण की कन्या उच्च वर्ण के पुरु’ा से विवाह नहीं कर सकती।

(इ) उपरोक्त दोनों ही मामलों में गांव के गांव में अथवा गुहांड (पड़ोसी गांव) या भाईचारा के गांवों में चाहे वे अन्य गोत्र-कुल के ही क्यों न हों विवाह संबंधों का नि’ोध होगा।

(ई) गोत्र खाप के गांव में यदि अन्य गोत्र के व्यक्ति रहते हैं तो वे खाप के गोत्र में अपने लड़के का रि”ता उन लड़की वालों से नहीं कर सकते जिनका गोत्र वही है जो कि खाप का गोत्र है चाहे लड़की वाले किसी दूर के गांव के ही रहने वाले क्यों न हों। उदाहरण के लिये ढराणा गांव में रवीन्द्र और ”िाल्पा के मामले में यही हुआ। रवीन्द्र का गोत्र गहलावत है और ”िाल्पा का कादियान। इस मामले में ब्याह कर लाई गई लड़की समस्त गोत्र खाप के लिये अपनी बेटी के समान ही हुई। इसलिये खाप के लोगों को यह मंजूर नहीं उनके गोत्र की बेटी उनके अपने बीच किसी और की वधू बन कर रहे। उनके सामने मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या यह थी वे ”िाल्पा को अपनी बेटी मानें या वधू। क्योंकि ”िाल्पा पहले कादियानों की बेटी है इसलिये उसे वधू मानने के लिये कोई भी तैयार नहीं। विवाद की जड़ भी यही थी।

गोत्र खाप के बीच सम-जातीय, सम-सामाजिक अधिकार प्राप्त और एक ही जैसे रीति-रिवाजों को मानने वाले अन्य गोत्र के लोगों का निवास कैसे हुआ, किन परिस्थितियों में उन्हें एकल गोत्र-खाप के गांवों में बसाया गया और विवाद से पूर्व उनके रि”ते-नाते किस प्रकार तय होते रहे इन बातों पर विवाद-पूर्व किसी गोत्र-खाप पंचायत अथवा मीडिया ने जानकारी हासिल करना जरूरी नहीं समझा। एक ऐतिहासिक और सामाजिक प्रक्रिया के तहत किसी एक गोत्र बहुलता अथवा एकल गोत्र-खाप के गांव में भू-भाई के तौर पर बसाये जाने के अलावा किन्हीं वि”ो’ा परिस्थितियों में बाहुबल की वृद्धि करने अथवा गांव में किसी परिवार द्वारा अपने भानजे को बसाये जाने के कारण भी अन्य गोत्र के लोगों का स्थायी निवास हो जाया करता था। कुछ गांवों में ऐसा भी देखने में आया कि इस प्रकार बाहर से आये हुए अन्य गोत्र के परिवार अपना गोत्र छोड़ कर गांव का मुख्य गोत्र ही अपना लिया करते थे। ऐसी परिस्थितियों में खाप के गोत्र और इकल्ले-दुकल्ले गोत्रों के परिवारों द्वारा अपने बच्चों का वैवाहिक संबंध तय करने में अनेक प्रकार की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मु”िकलें पे”ा आती रही हैं जिनका विगत में कुछ न कुछ हल निकाला जाता रहा था। लेकिन जब एक-एक गांव में अन्य गोत्र के लोगों की संख्या बढ़ गई तो समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया जिसका प्रतिकार हिंसा के रूप में Åभर कर सामने आया है।

विवाह संबंधों के बारे में लोगों के बीच जो डर है उसका निराकरण करना गोत्र-खाप और सर्व खाप के बस की बात भी नहीं है। विगत अनेक बैठकों से यह साबित हो चुका है कि खाप के चौधरी सामाजिक और वैज्ञानिक मसलों पर बात ही नहीं करते। वे तो केवल इज्जत की बात करते हैं, बात को पूरी तरह समझे बिना किसी परिवार को दो’ाी करार देकर गांव निकाला और हुक्का-पानी बंद करने का आदे”ा देते हैं। मेरा मानना है कि इस मामले में राजनैतिक पहल, सरकार की दखलअंदाजी, न्यायालयों की चिंता आदि से कुछ नहीं होने वाला इसलिये दो बातों को जानना जरूरी है। पहला तो यह कि जाट कौम की विवाह आदि संबंधों के बारे जो मान्यताएं हैं उनका पुनर्निरीक्षण करना और दूसरा यह कि इन मान्यताओं के वैज्ञानिक आधार की तला”ा करना।

यदि मान्यताओं के वैज्ञानिक आधार की तला”ा की जाये तो उनका पुनर्निरीक्षण करने की जरूरत स्वयंमेव ही समाप्त हो जायेगी। आइये देखें की वैज्ञानिक अध्ययन क्या कहते हैं और उनकी वैज्ञानिक अध्ययनों में भी कितनी वैज्ञानिकता और सत्यता है। मानव के विवाह संबंधों के सामाजिक आधार की जड़ में जो भी मान्यताएं रही हैं उनकी उत्पत्ति प्राचीन मनि’िायों ने बड़े सोच-विचार के बाद की थी अन्यथा ऐसा क्यों हुआ कि उनकी बात को कुछ ही लोगों ने नहीं बल्कि सभी लोगों ने माना। ऐसा भी नहीं है कि मुसलमान भाइयों, चाहे वे हमारे मुल्क में रहते हों या अन्य दे”ाों में अथवा यूरोप के दे”ाों और अमरीका में अपने कुल में परस्पर विवाह किया जाता हो और उन्हें उन वैंज्ञानिक पहलुओं का ज्ञान न हो जिनका हिन्दुओं अथवा जाटों को ज्ञान है। उन्हें भी इस बारे में ज्ञान है। न केवल हिन्दू जाटों अपितु भारत के धुर दक्षिणी प्रदे”ाों और मध्य-प”िचम भारत के अंचलों तक में इन बातों का सभी को प्राचीन काल से ही ज्ञान रहा है कि अपने सबसे निकटवर्ती संबंधी से विवाह की वर्जना करनी चाहिये। विगत बीस-तीस वर्’ाों से जीव वैज्ञानिकों ने विज्ञान की एक “ााखा ‘जेनेटिक्स’ में समाज”ाास्त्रीय अध्ययनों की जब से “ाुरुआत की तब से इस संबंध में ऐसे दिलचस्प तथ्य सामने आये हैं जिनसे विवाह संबंधों की पुरानी मान्यताओं की वैज्ञानिक जांच भी संभव हुई है। अब तक भारत में ही ऐसे सैंकड़ों महत्वपूर्ण अध्ययन हो चुके हैं जिनके लिये न केवल अंग्रजों के समय की जनगणना के आंकड़ें बल्कि सन १९९२-९३ के दौरान भारत में किये ने”ानल फेमिली हैल्थ सर्वे के आंकड़ों का भी व्यापक इस्तेमाल हुआ। इन अध्ययनों के अनेक उíे”यों में एक मुख्य बात यह जानना भी था कि जातियों में विवाह संबंध किस प्रकार स्थापित होते हैं। दूसरा यह कि ये जिन भी मान्यताओं अथवा परिपाटियों या परंपराओं के अनुसार तय किये जाते हों इनके परिणाम स्वरूप विवाहित जोड़ों को होने वाली संतानों में आनुवं”िाक और दूसरी बीमारियों की स्थिति क्या रही। अत्यधिक निकट संबंधियों को छोड़कर क्या अन्य निकट संबंधियों में विवाह करने से संतान आनुवं”िाक रूप से कमजोर हुई अथवा स्वस्थ रही। दूसरी ओर जिन जातियों में विवाह संबंधों के लिये दूरस्थ निकट संबंधियों का भी नि’ोध होता है जैसेकि जाटों में तो क्या उनकी संतान दूरस्थ निकट संबंधियों में विवाह के उपरान्त पैदा होने वाली संतानों से किसी मायने में अधिक ताकतवर और रोगनिरोधक क्षमता अथवा गुणों वाली होती है। इस मामले में मैं निम्नलिखित अध्ययनों का हवाला देना चाहूंगा जो इस बाबत प्रका”ा डालने में पूरी तरह सक्षम और संदर्भ के लायक हैं:-

1- ‘Parental Consanguinity and Offspring Mortality: The Search for Possible Linkage in Indian Context’ by Sushanta K. Banerjee (Research Manager, Taylor Nelson Sofres MODE, Kotla Mubarakpur, Delhi-03) and T.K.Roy (Director, International Institute for Population Sciences, Deonar, Mumbai-400008), Asia pacific Population Journa, March 2002
2- An Epidemiological Study of Congenital Malformations in Rural Children by Virendra Kumar (Department of Pediatrics and Community Medicine, PGIMES, Chandigarh), Amar Jeet Singh and R.K.Marwaha, Indian Pediatrics, Vol.31, August 1994
3- Consanguinity and its Effects on Fertility and Child Survival Among Muslims of Ladakh in Jammu and Kashmir by M.K.Bhasin and Shampa Nag
4- Community perceptions of reasons for preference for consanguineous marriages in Pakistan by R.Hussain, University of Wollongong, Journal of Hiosocial Science, 31, 1999, 449-461, 1999.
5- Genetics of Castes and Tribes in India: Indian Population Milieu by M.K.Bhasin, International Journal Human Genetics, 6(3): 233-274 (2006), Department of Anthropology, University of Delhi, India
6- Endogamy, consanguinity and community genetics by A.H.Bittles, Centre for Human Genetics, Edith Cowan University, 100, Joondalup Drive, Perth, WA 6027, Australia. Journal of Genetics, Vol.81, No.3, December 2002
7- Inbreeding and post-natal mortality in South India: effects on the gene pool by A.H.Bittles (Department of Anatomy and Human Biology, King’s College, University of London, London, UK), A. Radha Rama Devi, H.S.Savithri, Rajeshwari Sridhar and N. Appaji Rao (Indian Council of Medical Research Centre for Biomedical Research, Department of Biochemistry, Indian Institute of Science, Bangalore), Journal of Genetics, Vol. 64, Nos. 2 & 3, December 1985
8- The impact of consanguinity on the Indian Population by A.H.Bittles, Centre for Human Genetics, Edith Cowan University, Perth, Australia. Indian Journal of Human Genetics, July-December 2002, Volume 8 Issue 2
9- Inbreeding effects on fertility and sterility in southern India by P.S.S.Rao and S.G.Inbaraj, Department of Beostatistics, Christian Medical College, Vellore NA, Tamil Nadu, India. Journal of Medical Genetics, 1979, 16, 24-31
उपरोक्त वैज्ञानिक अध्ययनों के साथ सैंकड़ों की संख्या में अन्य संदर्भ दिये गये हैं जो इन अध्ययनों द्वारा निकाले गये नतीजों तक पहुंचने में सहायक रहे हैं। ऐसा नहीं है कि केवल जाटों को ही अपनी जाति को आनुवं”िाक रूप से मजबूत बनाये जाने और “ाुद्धता की चिंता रही हो। ऐसा दुनिया की सभी जातियों और वि”िा’ट समूहों में रहा है। जाट लोग अपनी ही जाति में विवाह करते हैं लेकिन वे अपने कबीले अथवा गोत्र में ऐसा नहीं करते। तब भी क्या जाट अपनी जाति के आनुवं”िाक समूह अथवा जीन पूल को पूरी तरह “ाुद्ध रखने में कामयाब हुए हैं जिससे कि उनकी किसी औलाद में आनुवं”िाक बीमारी के किसी तरह से कोई लक्षण न बचें। वैज्ञानिक तथ्य यह बताते हैं कि निकट संबंधियों में विवाह करने अथवा दूरस्थ संबंधी से भी रि”ता न करने वाले समूहों में आनुवं”िाक बीमारियों से बचने के अवसर लगभग एक जैसे ही होते हैं। लेकिन एक बात यह ध्यान देने वाली बचती है कि ऐसे विवाहों में आनुवं”िाकी गुणों की वाहक जीन्स का दीर्घकालीन व्यवहार क्या होगा। यह बात मुसलमानों और दक्षिण भारत में हुए अनेक अध्ययनों से ज्ञात होती है जिनसे दो बातों का पता चलता है। एक तो यह कि वे भी एकदम निकट संबंधों में विवाह नहीं करते और दूसरा यह कि दूरस्थ निकट संबंधों में हुए विवाह से पैदा संतानें बुरी या बीमार जीन्स को आगे औलाद में नहीं ले जाती। क्यों नहीं ले जाती इस बारे में अभी अध्ययन किये जाने की जरूरत है लेकिन आनुवं”िाकी वैज्ञानिकों का “ाास्त्रीय ज्ञान यह कहता है कि इसमें जीन स्तर का बारीक व्यवहार हो सकता है वातावरणी प्रभावों के चलते कुंद हो जाता हो या मंद पड़ जाता हो या बिल्कुल ही समाप्त हो जाता हो। लेकिन निकट संबंधियों के बीच हुए विवाह संबंधों में आनुवं”िाकी बीमारियों “ार्तिया तौर पर अगली संतानों में चली जाती हैं जिससे कौम कमजोर होती है। जैसा कि आमतौर पर मान लिया गया है कि मुसलमान और दक्षिण भारतीय लोग अपने मामा अथवा बुआ की लड़की-लड़के से “ाादी करते रहे हैं और उनमें आनुवं”िाकी रोग प्रकट होते रहे हैं तो वे कौमें अथवा धर्मावलंबियों की बड़ी आबादी अब तक कभी की समाप्त हो चुकी होती लेकिन व्यवहार में ऐतिहासिक तौर पर ऐसा नहीं हुआ। उन्हें ज्ञान था, इसलिये वे एकदम निकटवर्ती संबंधियों से विवाह संबंधों का नि’ोध करते रहे। अफसोस तो यह है कि जाटों में इस प्रकार से जेनेटिक्स के अध्ययन कभी नहीं हुए। फिर भी जिला अंबाला में जो कि हरियाणा का ही हिस्सा है पी.जी.आई. चंडीगढ़ के वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन किया उससे पता चला कि दूरस्थ से परे के विवाह संबंध होने पर भी संतानों में जन्म के समय से ही बालक में कुछ प्रकार के “ाारीरिक विकार देखे गये जो संभवत: गर्भावस्था में मां द्वारा गलत दवा अथवा गलत तरीके से अथवा गलत समय पर ली जाने वाली दवा के कारण गर्भ में भ्रूण अथवा अत्यंत छोटे बालक के विकास के लिये घातक हुए।

दूसरी ओर यदि हम यह मान कर चलें कि किसी वि”ो’ा जाट गोत्र के लोगों का जीन-पूल अर्थात आनुवं”िाकी भंडार अन्य जाट गोत्र के लोगों के जीन-पूल से अलग होगा तो यह भारी भ्रम है। जाटों में केवल कुछ गोत्रों में ही विवाह की वर्जना है लेकिन अमूमन कौम में तो “ाादी होती ही है। तब क्या अन्तर्रजातीय विवाह को बढ़ावा देना चाहिये क्योंकि एक समय ऐसा आयेगा जब जाटों में जीन-पूल ज्यादातर होमोजीनियस हो जायेगा अर्थात वि”िा’टता दिखाने वाली जीन्स की संख्या घट जायेगी। तब जाटों की परिपाटियां और मान्यताएं ढह जायेंगी और वे अन्तरजातीय विवाह करने को बाघ्य होंगे क्योंकि उनकी जाति पर अस्तित्व का संकट आन खड़ा होगा। इसके लिये जाटों को आज नहीं तो ५०० अथवा हजार साल बाद तैयार रहना होगा। अगर तैयार नहीं होंगे तो क्या उन्हें बहुत दूर के जाटों से रि”ते जोड़ने हांेगे? हरियाणा एक ऐसा प्रदे”ा है जो उत्तर भारत में भौगोलिक रूप से ऐसी जगह पर स्थित है जहां सिकंदर के हमले के समय से ही विदे”ाी जातियों अथवा नस्लों का आगमन होता रहा है और वहां के पुरु’ाों से यहां की स्त्रियों से संतानें होती रही हैं। अब इतना घालमेल हो चुका है वि”ाुद्ध नस्ल कौन सी बची होगी, कहना मु”िकल है। फिर भी मेरा यह निवेदन है कि जाटों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने के लिये बच्चों की हत्या कर देना या किसी परिवार को नाजायत रूप से अपनी ‘साख’ या इज्जत बचाने के नाम पर जघन्य अपराध करना और खाप की ताकत की आड़ में उसकी अनदेखी भी कर देना ठीक नहीं होगा। इससे समाज में अराजकता का संचार होगा और जाटों में प्रबुद्ध वर्ग जो कि ज्यादातर अब पढ़-लिख कर “ाहरों मेंं रहने लगा है उनसे कट जायेगा और विद्रोही हो जायेगा। खाप तो एक प्राचीन संगठन का विचार मात्र है जिसने कौम और दे”ा की अनेक बार सेवा की है। इसलिये आपसी विवादों और व्यक्तिगत रंजि”ा की वजह से खाप जैसे पवित्र संगठन को बदनाम न किया जाये। खाप के चौधरियों से भी मेरा निवेदन है कि वे नये जमाने के हिसाब से सहन”ाील और उदार दृ’िटकोण अपनायें और अपनी भूमिका को बदलते हुए ऐसा नये काम हाथ में लें जिससे ग्राम समाज दे”ा की मुख्य धारा के दु”मन बनने की बजाय आधार बने रहें। अन्यथा इसके गंभीर आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर के दु’परिणाम झेलने होंगे। तरक्की के रास्ते से गांव विमुख हो जायेंगे और युवा पीढ़ी अत्यंत विद्रोही हो उठेगी। इसलिये जरूरत है जाटों के लिये एक ऐसे दस्तावेज के निर्माण की जिसमें उन सब परिपाटियों की सूची के अलावा जिसे जाट कौम प्राचीन काल से अपनी धरोहर मानती है ऐसी व्याख्याएं भी हों जो इनकी वैज्ञानिक पु’िट भी करें। अफसोस तो यही है संचार और सूचना क्रांति के इस युग में भी जाट कौम अभी तक अपना संविधान नहीं बना सकी। इसके लिये कर्नल चंद्र सिंह दलाल ने जो पहलकदमी की है उसमें सभी को साथ देना चाहिये और कम्युनिस्ट लोग और मीडिया क्या कहते हंै उसका भी निराकरण करना चाहिये।

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