शनिवार, 24 अप्रैल 2010

खाप पंचायतें और उनकी कार्रवाई के प्रति भारतीय मीडिया का रुख / -रणबीर सिंह फौगाट

खाप पंचायतें और उनकी कार्रवाई के प्रति

भारतीय मीडिया का रुख

-रणबीर सिंह फौगाट

प्रारंभ में ही यह स्प’ट करना उचित रहेगा कि खाप पंचायतों और उनकी कार्रवाई के प्रति ज्यादातर मीडियाकर्मी अल्पज्ञानी हैं और वे हमें अकसर विरोधी पाल+े में बैठे नजर आते हैं। आ”चर्यजनक बात यह भी है कि हरियाणा के अधिकतर बुद्धिजीवी, जो कि वामपंथी विचाराधारा के समर्थक हैं और जिन्हें हरियाणा के लोगों के सांस्क‘तिक इतिहास के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, इन्हीं लोगों के साथ बैठे हुए नजर आते हैं। मीडिया में जाट खाप पंचायतों के विरुद्ध इन्हीं लोगों द्वारा लिखे गये लेख और बौद्धिक विवेचनाएं प्रका”िात होती रही हैं जिनसे आमजन में यह धारणा बनी है कि खाप पंचायतें मानवाधिकार विरोधी हैं, वे बर्बर कार्रवाई की समर्थक हैं और उन्हें न्याय करना नहीं आता। इसके अलावा जब भी कोई ऐसी घटना होती है जिसमें खाप पंचायतों की भूमिका बनती है तो मीडिया में अकसर ऐसी रिपोर्टों की भरमार हो जाती है जिससे उनकी छवि और भी दागदार बन जाती है। ऐसी स्थिति में प्र”ाासन, न्यायपालिका और विधायिका के लिये ऐसी दबावपूर्ण परिस्थितियों का स‘जन होता है जिससे वे कोई नया कानून बनाकर खाप पंचायतों को गैर-कानूनी घो’िात कर दें। देखा गया है कि ऐसे मामले उठने पर संयमी और इतिहास-संस्कृति के जानकार एवं जाट कौम के बुद्धिजीवी तटस्थ बने रहते हैं और उनकी कोई भूमिका भी मीडिया में नजर नहीं आती। “ाायद इसका एक कारण यह भी है वे एक तो इतना नि’िक्रय हैं कि गलत तरीके से पे”ा की जाने वाली बातों के विरुद्ध कलम नहीं उठाते। दूसरा, उनके पास कोई ऐसा मंच नहीं है जिसे मीडिया नि’पक्ष और भरोसे लायक माने। ये लोग मीडिया के लिये प्रो-एक्टिव नहीं हैं अर्थात कुछ होने से पहले ही उसके बारे विचार करके सक्षम होकर कार्रवाई कर सकें ऐसा कोई पग नहीं उठाते। हरियाणा का अपना न तो कोई टी.वी. चैनल है और न ही कोई प्रति’िठत दैनिक अखबार। इसलिये हरियाणा से संबंधित जो भी रिपोर्टें टेलीविजन और अखबारों के अलावा पत्रिकाओं में प्रसारित@प्रका”िात होती हैं उन सबके मुख्य ठिकाने या हैडक्वार्टर या तो चंडीगढ़ और दिल्ली में हैं अथवा उत्तरप्रदे”ा और मध्यप्रदे”ा में जैसा कि दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर के मामले में। एक बात और भी है कि हिन्दी भा’ाा के जनसंचार माध्यमों जैसे कि अखबार और पत्रिकाएं ऐसी नहीं मानी जातीं जिनमें प्रका”िात रिपोर्टों पर नीतिज्ञ, सरकारी अमला, न्यायपालिकाएं और विधायिकाएं कोई गंभीर तवज्जों लें। इसलिये जो भी असरदार रिपोर्टें छपती या प्रसारित होती हैं वे या तो अंग्रेजी भा’ाा के टेलीविज+न चैनल्स पर प्रसारित होती हैं अथवा अंग्रेजी भा’ाा के प्रति’िठत अखबारों जैसे कि दि ट्रिब्यून, दि टाइम्स आWफ इंडिया, दि हिन्दुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्स्प्रेस में प्रका”िात होती हैं। संसद का सत्र चल रहा हो तो इन अखबारों की प्रतियांे को हमारे माननीय सांसद अंदर ले जाते हैं और लहरा-लहरा कर अन्य सदस्यों का ध्यान इनमें छपी हुई उन सुखर््िायों की ओर आकर्’िात करते हैं जिनमें खाप पंचायतों के बारे टिप्पणियां या रिपोर्टें प्रका”िात हुई हैं। वे जोर देकर यह कहते हैं कि हरियाणा में खाप पंचायतें निर्दयी और अत्याचारी हो गई हैं इसलिये इन पर कानूनी अंकु”ा लगाया जाना जरूरी है।
यह समझना जरूरी है कि यदि मीडिया में खाप पंचायतों के अस्तित्व, उनकी ऐतिहासिक भूमिका और कार्रवाई एवं विभिन्न मुíों पर समय-समय पर लिये गये निर्णयों के बारे में कोई अनाव”यक और आपत्तिजनक टिप्पणी की जाती है अथवा विगत में समीक्षाएं की जाती रही हैं तो प्रतिकार स्वरूप न केवल उनका बौद्धिक और कानून सम्मत जवाब दिया जाना जरूरी है बल्कि यह सवाल उठाया जाना भी जरूरी है कि मीडिया में लेखक, टिप्पणीकार, रिपोर्टर और संपादक इन वि’ायों के बारे में कितनी जानकारी रखते हैं। अब तक इस बारे में जितने भी लेख, रिपोट्र्स और संपादकीय टिप्पणियां प्रका”िात हुई हैं क्या वे पत्रकारिता व्यवसाय के लिये लागू अलिखित नैतिक आचरण संहिता के दायरे में रही हैं अथवा नहीं इस पर विमर्”ा जरूरी है। क्या मीडियाकर्मियों ने खाप पंचायतों के बारे में उच्च स्तरीय जानकारी रखने वाले तटस्थ प्रबुद्ध वर्ग एवं खाप के चौधरियों का पक्ष भी लोगों के सामने रखा अथवा केवल एक-पक्षीय बात करते हुए खापों के विरुद्ध एक निदंनीय अभियान मात्र ही चलाया ? इस मामले में प्रेस की भूमिका को संदेहास्पद तो नहीं कहा जा सकता लेकिन विभिन्न रिपोट्र्स, लेखों और संपादकीय लेखों के अध्ययन एवं वि”ले’ाण से यह जरूर स्प’ट हो गया है कि उन्होंने जो भी प्रका”िात किया है उसमें तटस्थ भाव का घोर अभाव दिखा। उनकी इस बौद्धिक कमी पर आज तक अंगुली इसलिये नहीं उठायी गई कि (१) खाप के अधिकतर चौधरी सीदे-साधे और अल्प”िाक्षित हैं, और (२) जाट गोत्र खापों से संबद्ध जाति के बुद्धिजीवियों ने तत्काल ही स”ाक्त जवाब नहीं दिया। इसलिये मीडिया यह मान कर चल रहा है कि वे जो कुछ पे”ा करते हैं प्रतिकार के अभाव में वह मान्य हो गया है, जबकि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। जाटों में अनेक तटस्थ बुद्धिजीवी जो कि कानून, विज्ञान, समाज “ाास्त्र, धर्म”ाास्त्र, न्याय”ाास्त्र, राजनीति और कूटनीति तथा व्यवस्था के मामले में विद्वान कहे जाते हैं इस मामले में ढीले रहे हैं इसलिये “ाायद मीडिया में गुरू लोग जो जी में आये वह लिखते जा रहे हैं। देखा गया है इस मामले में वे भी संयम से काम नहीं ले रहे हैं जबकि गोत्र खाप अथवा सर्वखाप के प्रतिनिधियों ने अपार संयम का परिचय दिया है। अभी तक अनेक मामलों में खापों की भूमिका पर अंगुली इसलिये उठती रही है कि उनकी आड़ में अपराधी अकसर संरक्षण लेते देखे गये हैं जबकि ज्यादातर ऐसे अपराध जो व्यस्क व्यक्तियों के वैवाहिक संबंधों, सेक्स संबंधों अथवा वर्ण व्यवस्था के आधार पर उपजते हैं, खापों की मंजूरी से कभी घटित नहीं हुए। यदि हर व्यक्तिगत मामले में घटनाओं की आवृत्ति और समयक्रम को दर्ज किया जाये तो पता लगता है कि कोई घटना या दुर्घटना तो पहले हो चुकी है लेकिन खाप के पास वह मामला बाद में आया। खाप के चौधरियों अथवा मुखिया लोगों अथवा पंचों पर मीडिया द्वारा यह आक्षेप लगाना कि वे अन्याय के पक्षधर हैं, उचित नहीं होगा। सवाल यह उठता है कि पंचों के निर्णय को उचित एवं मान्य बनाने के लिये परिपाटियां ज्यादा सुदृढ़ संदर्भ हैं अथवा दे”ा का कानून ? यदि हम कानून का “ाासन अर्थात रूल आफ लॉ की बात करें तो पायेंगे कि केवल चंद मामलों में ही खापों के मुखिया पंचों द्वारा निर्णय लेने कि प्रक्रिया में न केवल व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों बल्कि रूल आफ लॉ का भी नि”चत तौर उल्लंघन हुआ है। गोत्र खापों के मुखिया लोगों की भूल अथवा नि’िक्रयता सिर्फ इतनी होती है कि व्यक्ति ने यदि वास्तव में ही जघन्य अपराध किया है तो पुकार होने पर उसका बचाव न किया जाये बल्कि उसे दे”ा की कानूनी प्रक्रिया के दायरे में लाकर पुलिस अथवा न्यायालय के सुपुर्द कर दिया जाये ताकि न्याय हो सके। लेकिन मीडिया की बात करें तो ऐसे मुकदमें वे खुद ही चलाने लगे हैं और निर्णय भी देने लगे हैं कि गोत्र खाप अथवा सर्वखाप गैर-कानूनी संगठन है, मुखिया स्वयं-भू हैं और वे मूर्ख तथा गंवार हैं। खापों पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये आदि-आदि। पिछले दिनों मीडिया में प्रका”िात कुछ सुर्खियों और मजमून से लिये गये उद्धरणों पर नजर डालें तो उक्त बात सही साबित होती है। उदाहरण देखिये:-
१. दिनांक २४ जुलाई २००९ को ‘दि ट्रिब्यून’ मंे खबर का “ाीर्’ाक था ‘Haryana Khap panchayat at it again —23 year old youth lynched for marrying same gotra girl in Narwana’। अगले दिन इसी अखबार में न केवल फिर एक खबर &^He died for her, but she takes a U-turn’ छपी बल्कि संपादकीय भी छपा जिसका “ाीर्’ाक है .Who Rules Haryana? The law or the khaps?
लेख का पहला वाक्य ही यह बताता है कि कानून और व्यवस्था के नजरिये से हरियाणा अराजकता की ओर एक कदम आगे सरक गया है क्योंकि अपने ही गोत्र की एक व्यस्क लड़की से विवाह करने के मामले में खाप पंचायत ने कार्रवाई की। जिस आधार पर अखबार ने यह टिप्पणी की वह रेत का पहाड़ है क्योंकि लड़के और लड़की का गोत्र अलग-अलग है -एक मोर है और दूसरा भनवाला। हां, लड़की वालों की ओर से लड़के को घेर कर मारना सरासर जघन्य अपराध है जिसके लिये लड़की वालों को अव”य ही अपराधी घो’िात करके कानून के तहत मान्य सजा दी जानी चाहिये। लेकिन यह समझ में नहीं आता कि इसके लिये अखबार के संपादकीय लेखक ने, जो नि”चय ही अखबार का मुलाजिम होगा, यह कैसे समझ लिया कि इसके लिये खाप दो’ाी है जबकि खाप तो वहां थी ही नहीं और न ही खाप का कोई चौधरी या मुखिया। यह तो केवल सिंघवाला गांव में लड़की के परिवार और संबंधियों की ही कारगुजारी थी जो कि आपराधिक थी। लेकिन अखबार ने खाप को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। अखबार ने जो मौलिक गलती की है उसके बारे में क्षमा याचना के लिये अखबार क्या खाप के पास जायेगा ? प्रतिकार के रूप खाप क्या अपने प्रभाव के इलाके में ‘दि ट्रिब्यून’ समूह के अखबारों की बिक्री अथवा वितरण बंद करवा देगी ? लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। दूसरी ओर अपनी मौलिक गलती को अखबार ने भी छिपाया जो कि नैतिक रूप से अनुपयुक्त है।
२. दिल्ली से छपने वाले प्रति’िठत अखबार ‘दि हिन्दुस्तान टाइम्स’ के दिनांक २४ जुलाई २००९ के अंक में एक कॉलम में खबर छपी जिसका “ाीर्’ाक था -‘यूथ किल्ड फार आWनर इन हरियाणा’ जो कि सिंघवाला गांव में घटित उपरोक्त घटना से ही संबंधित है। यह बात तो सही है कि आन बचाने की खातिर ही लड़के को घेर कर मारा गया। अखबार के रिपोर्टर द्वारा जींद से भेजी गई इस खबर में यह लिखना ठीक हो सकता कि ‘१९ मार्च को मोर खाप ने बैठक करके लड़के के लिये सख्त सजा का फरमान जारी किया’। लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि मोर गोत्र की खाप ने ऐसा फरमान जारी किया कि लड़के को घेर कर जान से मार दिया जाये। क्या दि हिन्दुस्तान टाइम्स का रिपोर्टर, वि”ााल जो”ाी और अखबार के संपादक और प्रका”ाक यह बात बता सकते हैं कि उनके द्वारा लिखित ‘स्ट्रिक्ट एक्”ान’ का अर्थ भनवाला खाप में लड़की के परिवार ने यह समझ लिया हो कि लड़के को जान से मारना है। इसलिये एक परिवार के सदस्यों द्वारा किये गये जघन्य अपराध के मामले को खाप के सिर थोपना उचित नहीं जान पड़ता। दूसरी ओर मारे गये लड़के के गांव में मोर खाप ने बदले की कार्रवाई करने की जो धमकी दी उसका अर्थ भी क्या मोर गोत्र के सभी लोग यही समझेंगे कि, चाहे वह अपराधी की हो या बेकसूरवार की। इसलिये इस मामले में पुलिस का वक्ती प्रबंध ही काम आया। लेकिन भवि’य में इन दोनों खापों के बीच वर्तमान तनाव क्या रूप लेने वाला है उसकी निगरानी कौन रखेगा? और, क्या पुलिस हर दिन और आठों पहर किसी दुर्घटना को टालने के लिये यहां चौकस ही बैठी रहेगी। इस मामले में मीडिया ने अपने जौहर तो दिखा दिये लेकिन क्या खाप के प्रबुद्ध व्यक्तियों ने कोई मीडिया-एक्”ान लिया ताकि स्थिति की ठीक-ब्यानी हो सके ? कुछ इसी तर्ज पर दिल्ली से छपने वाले भारत के प्रति’िठत अखबार ‘दि टाइम्स आWफ इंडिया’ में २४ जुलाई को जो खबर छपी थी उसका “ाीर्’ाक था -‘मैन लिन्च्ड फॉर मैरींग आउटसाइड खाप’।

३. अब अन्य अखबारों के “ाीर्’ाकों और लेखों पर भी जरा नजर डालें:
(अ) नीलोखेड़ी में हरियाणा इंस्टीट्यूट आWफ रूरल डेवलेपमWन्ट में कंसल्टेंट के पद पर नियुक्त रणबीर सिंह का ‘Combating khap panchayats in Haryana’ “ाीर्’ाक से ‘दि ट्रिब्यून’ के २६ जुलाई के अंक में प्रका”िात लेख छपा जिसमें उन्होंने खाप पंचायतों की कार्यप्रणाली और निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारणों पर प्रका”ा डालने और उनके निराकरण के कारगर उपाय सुझाने की बजाय खाप पंचायतों को ही दो’ाी करार देकर उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने विवाह संबंधों के मामले में उठने वाले विवादों के अनेक असंबंधित कारण गिना दिये हैं जो कि उनकी नजर में रूरल डेवलेपमेंट के लिये जरूरी होने चाहिये जिससे ग्राम्यांचलों में सक्रिय खाप पंचायतों की कार्यप्रणाली और निर्णय प्रक्रिया में जबरदस्त परिवर्तन आने की संभवना है। गोया कि, उनके गिनाये कारणों को दूर कर दिये जाने से समस्या का समाधान हो जायेगा! मीडिया में जाने से पहले ऐसे प्रबुद्ध लोगों को बारीकी से “ाोध कार्य करके सही उपाय सुझाने चाहियें।
(आ) झज्जर से ‘दि ट्रिब्यून’ के संवाददाता रवीन्द्र सैनी की २९ जुलाई २००९ की न्यूज+ रिपोर्ट जिसका “ाीर्’ाक था ‘‘Khap gives Gehlout family 48 hours’ में कहा गया कादियान खाप ने ‘कसूरवार’ माने गये गहलावत परिवार को अल्टीमेटम दिया है। इसके बाद दि टाइम्स आWफ इंडिया में दिनांक ३१ जुलाई को छपे संपादकीय लेख का “ाीर्’ाक -’म्दक भ्वदवनत ज्ञपससपदहे’ आखिर किस “ौली का लेख है ? दि टाइम्स आWफ इंडिया के संपादकीय में सिंघवाला गांव में विवाह संबंध को लेकर हुई नवयुवक की हत्या के प्रति संसद में ध्यानाकर्’ाण और खाप पंचायतों को जघन्य अपराध के समर्थक के रूप में देखा जाना न केवल समस्त जाट जाति के लिये अमान्य एवं अपमानजनक है बल्कि एक मायने में उच्चतर संस्थाओं की विव”ाता को भी दिखाता है। जब दे”ा में अन्यत्र होने वाले अपराधों की जांच के लिये पार्लियामेंटरी कमेटी और जांच कमी”ान बिठा दिये जाते हैं तो इस मामले में संसदीय जांच कमेटी अथवा कमी”ान बिठा कर मामले को सुलझाने की पहल संसद ही क्यों नहीं करती ? मुझे नहीं मालूम की आज तक किसी भी सांसद ने खाप पंचायतों में होने वाली बैठक में हिस्सा लेने की जुर्रत तक की हो। तब दिल्ली में बैठ कर दिल्ली से छपने वाले अखबारों को बगल में दबाकर संसद में पहंुचने वाले हमारे प्रतिनिधियों की चिंता और इन्हीं चंद अखबारों में छपी खबरों की तह तक न पहुंच कर जो विवरण छापा जाता है उसी के आधार पर राय बनाने की प्रवृत्ति कहां तक उचित है। वह भी संासदों में जो कि दे”ा की सर्वाेच्च विधायिका के सदस्य होते हैं! इसी बात को मीडिया में छपी खबरों के आधार पर आगे ले जाने वाला ने”ानल áूमन राइट्स कमी”ान यह देखना चूक जाता है कि मौके पर जाकर तफती”ा करना तो मामले को निपटाने की पहली “ार्त होती है। इसी कड़ी में कुछ दिन बाद प्रति’िठत अखबार ‘दि हिन्दू’ में १ अगस्त २००९ के अंक में खबर छपती है कि ‘NHRC notice to Haryana over caste panchayats’। अब इस मामले में हरियाणा सरकार की भूमिका कहां तक और कितनी हो सकती है इसके बारे में सब लोग पहले से ही जानते हैं क्योंकि ऐसे नोटिस तो हरियाणा सरकार को पहले भी मिल चुके हैं। ढराणा गांव में पुलिस बल भेज कर हरियाणा सरकार ने देख लिया कि वहां कितना और कैसा नियंत्रण किया जाना संभव है। लेकिन हरियाणा के अलावा जाट अंचल और दिल्ली में बैठे विचारक और चिंतक तो यह सोच कर तसल्ली कर बैठे हैं कि ने”ानल áूमन राइट्स कमी”ान द्वारा रुचि लेने से खाप पंचायतों पर जरूर ही सख्त कार्रवाई करनी संभव होगी। वे या तो मुगालते में हैं अथवा मीडिया रिपोर्टों ने उन्हें ज्यादा ही आवे”िात कर दिया है। जरूरत है मीडिया रिपोर्टों पर कार्रवाई न करके इस मसले के सामाजिक-आर्थिक और संरचनात्मक पहलुओं को लेकर दीर्घकालीन कार्रवाई की जाये जैसा कि आज आयोजित किये गये इस सम्मेलन का उíे”य भी प्रतीत होता है।
(इ) दिनांक २९ जुलाई २००९ को दिल्ली से प्रका”िात इंडियन एक्स्प्रेस अखबार में चंडीगढ़ से दिनकर व”िा’ठ ने एक बड़ा समाचार फीचर लिखा जिसका “ाीर्’ाक है -‘^Till Khap Panchayats do them Part’। दिनकर जी ने लिखा कि ‘प्रति वर्’ा खाप पंचायतें लगभग १०० की संख्या में तय”ाुदा विवाह संबंधों को खारिज कर देती हैं। इस मामले में सरकार कोई कार्रवाई करने से हमे”ाा बचती रही है।’ ढराणा गांव की घटना को संदर्भ लेकर लिखे गये इस बड़े समाचार-फीचर में पिछली घटनाओं का भी हवाला दिया गया। समाज “ाास्त्रिायों के हवाले से इस रिपोर्ट में कहा गया कि ‘ऐसी घटनाएं दो’ापूर्ण विकास की वजह से होती हैं’। कुल मिलाकर इस न्यूज+-फीचर लेख में यह कहा गया है कि खाप पंचायतों के मामले में प्रादे”िाक सरकार कोई प्रभावी कार्रवाई करने में अक्षम है।
(ई) इसके बाद दिल्ली से प्रका”िात ए”िायन एज+ समाचार पत्र में सांसद जयंती नटराजन का एक लेख Nothing honourable about honour killing* छपा है जिसमें गोत्र विवाद को लेकर होने वाली हत्याओं को गंभीरता से लिया गया और खाप पंचायतों पर मुज+रिमों पर “ाह देने का आरोप लगाया गया। लेख में सुझाव दिया गया कि ऐसी घटनाओं की पुनर्रावृत्ति रोकने के लिये सरकार को सख्त कदम उठाने चाहियें। लेकिन इन कदमों की रूप-रेखा क्या हो ऐसा कुछ भी इसलिये नहीं बताया गया कि जयंती नटराजन तमिलनाडु से राज्य सभा की सांसद हैं और उन्हें हरियाणा के जाटों के रीति-रिवाजों और स्थानीय परिवाटियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। तमिलनाडु में दूरस्थ संबंधियों में विवाह किये जाने की प्रथा है इसलिये वे हरियाणा में जाटों के गोत्रों के बीच आपसी रि”तों को पूरी तरह नहीं समझती हैं। फिर भी जयंती नटराजन ने जो बात कही है वह सोलह आना सही है कि ‘मान-सम्मान के लिये युवाओं की हत्या किये जाने का सिलसिला बंद ही होना चाहिये’।
(उ) ‘दि ट्रिब्यून’ के दिनांक ६ अगस्त के अंक में पत्र संवाददाता ने जो खबर भेजी उसका “ाीर्’ाक था -12 Sarpanches give resignation* अर्थात कादियान खाप के फैसलों के समर्थन में सरकारी पंचायतों के चुने हुए प्रतिनिधियों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इससे जाहिर हुआ कि पद से बड़ा होता है सामाजिक सम्मान और उससे भी बड़ी खाप होती है। बात तो बिल्कुल ठीक है लेकिन जनता द्वारा चुने हुए इन प्रतिनिधियों को यह सोचना चाहिये कि उनकी नियुक्ति खाप के चौधरियों ने की है अथवा सरकार ने। वे सरकार के प्रति जिम्मेवार हैं अथवा अपनी गोत्र खाप के प्रति। इनके चुनाव पर सरकारी को”ा से पैसा खर्च हुआ है। उनके कुछ संवैधानिक कर्तव्य बनते हैं और गोत्र एवं जाति खाप में किसी सामाजिक मसले को लेकर सरकार के खिलाफ त्यागपत्र देकर आक्रो”ा जताना न केवल नाजायज है वरन गैर-कानूरी भी जिस पर सरकार को उनके विरुद्ध अनु”ाासनात्मक कार्रवाई के बारे विचार करना चाहिये। लेकिन सरकार न तो इस्तीफे स्वीकार करेगी और न ही अनु”ाासन भंग करने का आरोप लगा कर उन्हें स्वयं बर्खास्त करेगी। यही तो विडंबना है कि सरकार इन मामलों मंे कोई कार्रवाई नहीं करती।
(Å) लेकिन उपरोक्त समाचार के प्रका”ान के बाद दि हिन्दुस्तान टाइम्स में १० अगस्त को जो समाचार छपा उसका “ाीर्’ाक था -’Gotra Row: sarv khaap for mild punishment’जिसके द्वारा अखबार के रिपोर्टर सतबीर सरवरी जी ने मसले की सही रिपोर्टिंग करके यह बताया कि गोत्र खाप में मामले का निपटारा नहीं होने से सर्व गोत्र खाप की जो बैठक बुलाई गई थी उसमें कुछ ऐसे फैसले लिये गये जो विवाद में लिप्त दोनों पक्षधरों को मान्य थे। आखिर सर्वखाप के पंचों ने विवाद के निपटारे के लिये जो निर्णय लिये उन पर अमल करने के लिये दोनों ही पक्ष राजी हो गये। सजा बहुत मामूली दी गई लेकिन असरदार थी।
(ए) दिनांक १६ अगस्त २००९ के ‘दि ट्रिब्यून’ मंे विख्यात हरियाणवी चिंतक एवं सामाजिक सक्रियक और वामधारा की ओर झुके हुए श्री डी. आर. चौधरी का बड़ा लेख प्रका”िात हुआ। मीडिया में उन्हें हरियाणवी मामलों पर वि”ो’ाज्ञ माना जाता है। इसलिये अखबार को उनके विचार छापने में कोई दुराग्रह नहीं रहा और न ही कोई मु”िकल महसूस हुई होगी। खाप पंचायतों की कार्यप्रणाली और फैसलों को लेकर डी. आर. चौधरी हमे”ाा की एक तीखा रुख अपनाते रहे हैं, यह भी सर्वविदित है। इस लेख का “ाीर्’ाक और उप-”ाीर्’ाक हैं -’Why are political parties silent on khaps? These so-called panchayats must be banned, says D.R.Chaudhry’लेख में उन्होंने उन विचारों को ही पुन: प्रे’िात किया है जो वे कभी से पो’िात करते आये हैं लेकिन प्रादे”िाक राजनैतिक दलों की चुप्पी के कारणों पर उन्होंने प्रका”ा नहीं डाला। यह कहकर मामले को निपटा दिया कि केवल वामपंथी दल और विचारधारा के लोगों ने खाप पंचायतों की कार्यप्रणाली और फैसलों पर अंगुली उठायी और अमानवीय फैसलों का रí करने समेत खाप पंचायतों पर प्रतिबंध लगाने की सिफारि”ा फिर से कर डाली। ज्ञातव्य है वे जिला सिरसा के रहने वाले हैं जहां के गांवों को स्थायी तौर पर सन १८१३ के बाद कैप्टन थास्र्टन के प्रयासों से बसाया गया था। जिला सिरसा के बारे में एक रिपोर्ट सन १८८३ में प्रका”िात हुई थी जिसका “ाीर्’ाक है- ‘Final Report on the Revision of Settlement of the Sirsa District in the Punjab, 1879-83* जिसमें बताया गया है कि जिला सिरसा में उजाड़ पड़े सैंकड़ों गांवों और सिरसा “ाहर को पुन: किस प्रकार आबाद किया गया ताकि काफी समय से खाना बदो”ाों की तरह भटकने वाले लोग वहां स्थायी तौर पर रह सकें और काम-धंधों में लगें ताकि न केवल “ाांति कायम हो सके वरन लोगों और सरकार दोनों की आमदनी बढ़े। जिस समय ये गांव बसाये गये थे उस समय इनमें बसने के लिये अनेक जातियों और गोत्रों के लोग यहां-वहां से आये थे और इस प्रकार एक ही गांव में अनेक गोत्र के लोग बस गये। पुन: बसने के कारण इनकी सामाजिक संरचना नई थी और वहां एक ही गोत्र का किसी गांव में वर्चस्व नहीं बन पाया। इस वजह से वहां एक ही गांव में समजाति के भीतर ही दूसरे गोत्र में विवाह होते रहे जिन पर आज तक किसी ने अंगुली नहीं उठायी। लेकिन मध्य और मध्य-पूर्व हरियाणा के गांव बहुत पुराने समय से निरंतर बसे हुए हैं और यहां गोत्र खापों का वर्चस्व भी सैंकड़ों नहीं बल्कि एक हजार से भी ज्यादा वर्’ाों से कायम है जो कि इतना रूढ़ हो चुका है नये जमाने की हवा उन्हें छू भी नहीं सकती। श्री डी. आर. चौधरी अपने इलाके के माहौल के अनुसार ही मध्य और मध्य-पूर्व हरियाणा के जाटों के गांवों में गोत्र विवादों को निपटाने की एक तरह की छुपी सिफारि”ा करते प्रतीत होते हैं जो कि सामाजिक मान्यताओं और रूढ़िवाद के चलते इसलिये संभव प्रतीत नहीं होती कि यदि विवाहित जोड़े को उसी इलाके में स्थायी तौर पर रहना होता है जहां कि गोत्र खापों का वर्चस्व पहले से कायम है। उदाहरण के लिये यदि ढराणा गांव का रहने वाला रवीन्द्र गहलावत कादियान गोत्र की अपनी पत्नि को लेकर कभी से ही भारत के किसी अन्य राज्य में, किसी नगर में, रहता होता तो संभवत: यह विवाद कभी नहीं उपजता। इसलिये इन मामलों में इलाकाई और कबीलाई परिपाटियों का वर्चस्व पहले है और गोत्र खाप में विवाह संबंधी विवादों का लाया जाना बाद की बात है जिसे मीडिया समझने में नाकामयाब रहा है। दिनांक २५ अगस्त के ‘दि ट्रिब्यून’ में रेवाड़ी के श्री सुभा’ा सी. “ार्मा का चौधरी साहब के लेख पर प्रतिक्रिया स्वरूप संपादक के नाम पत्र छपा है जिसका “ाीर्’ाक है -‘क्मंस ेजमतदसल ूपजी ाींचे’ जिसमें कहा गया कि ‘प्रजातंत्र में खाप पंचायतों के लिये कोई जगह नहीं है। वे कानून के “ाासन और प्रजातांत्रिक राजनीति के लिये एक दाग हैं। स्वतंत्रता, अधिकार, आजादी और जेंडर इक्वेलिटी इनके लिये कोई मायने नहीं रखती। फिर भी ये जातिगत संगठन मौजूं हैं जिन्हें राजनैतिक संरक्षण भी मिलता है। ये पंचायतें सामुदायिक आचरण और आचार संहिता की स्वयं-भू मालिक हैं। ये बदले की भावना से काम करती हैं और गैर-कानूरी तरीके से संगठित होकर सरकारी अमले को तितर-बितर करते हैं। खाप पंचायतों से सख्ती से निपटा जाना चाहिये और इन जाति पंचायतों को ऐसे सामाजिक सुधारों के काम करने चाहियें ताकि बहादुरी और व्यापक सोच वाली जाति के रूप में विख्यात जाट कौम का भला हो सके।’ सुभा’ा जी की सोच ठीक है लेकिन क्या सख्ती से निपटने का उनका सुझाव कारगर हुआ है अथवा उसके सफल होने की तनिक भी संभावना नजर आती है ? दूसरी बात यह कि सैंकड़ों वर्’ा पहले जब विदे”ाी आक्रांताओं का मुकाबला करने के लिये जाट कौम की सर्वदे”ाीय, सर्वखाप विदे”ाी हमलावरों से दे”ा को बचाने के लिये रणबांकुरों को तैयार कर रही थी तो उस समय के दे”ाी राजाओं ने इन्हें गैर-कानूनी करार क्यों न दे दिया था जाकि आज ये हमें तंग ही करतीं। उसी समय इनका अस्तित्व समाप्त क्यों न कर दिया गया। हकीकत यह है कि मुसलमान, मुगल और अंग्रेज “ाासकों के समय में भी इनका अस्तित्व मिटाना उनके लिये असंभव था। क्योंकि इनका अस्तित्व तो माटी की रज में कभी से मिला हुआ है। उपरोक्त के मíेनजर कुछ पुराने मीडिया प्रकरणों एवं रिपोर्टों पर नजर डालना अपरिहार्य होगा:-

¼1½ ‘Khap panchayats are not legally recognized: govt’, by Maneesh Chhibber, High Court Correspondent, The Tribune, Chandigarh, dated July 5, 2006
¼2½ ‘Khap panchats extend operations by Raman Mohan, Tribune News Service, dated 15 September 2007
¼3½ ‘Are khap panchats necessary? A Social requirement -by Shamim Sharma, The Tribune Debate, dated 2003
¼4½ ‘No longer Relevant’ by Raman Mohan
¼5½ ‘Khap panchayats staging a comeback by Pradeep Kasni, The Tribune Debate, 2003
¼6½ ‘Signs of tribal culture by Dharam Pal S. Mor (Rejoinder to Dr. Shamim Sharma’s article)
समाचार पत्रों के अलावा समाचार पत्रिकाएं भी एकमु”त ऐसे लेख छापती रही हैं जिनमें दिल्ली के आसपास बसे हुए जाट गोत्र के गांवों में विवाह विवादों और खाप पंचायतों की कार्रवाई और अस्तित्व पर बड़े सवाल खड़े किये गये हैं। तरुण तेजपाल द्वारा संचालित ‘तहलका’ पत्रिका के दिनांक १६ जुलाई २००५ के अंक में गोत्र विवाद और खाप पंचायतों के बारे में छापा गया। इसे पत्रिका के इस अंक का मुख्य लेख बनाया गया था जिसे मिहिर श्रीवास्तव ने लिखा। श्रीवास्तव साहब चाहे जितना “ाोध कर लें लेकिन वे गैर-जाट होने के नाते जाटों की अपनी परिपाटियों के प्रतिबद्धता के मूल भाव को कभी नहीं समझ पायेंगे। इस लेख में आसंडा में हुई खाप पंचायत जिसमें सोनिया और रामपाल प्रकरण के बारे चर्चा हुई और जोणधी प्रकरण जिसमें आ”ाी’ा और दर्”ाना के विवाह को विवादित करार दिया गया के बारे में विस्तार से बताया गया था। इन दोनों मामलों में भी घटनाएं पहले हो गई और खाप की दखल अंदाजी बाद में हुई थी। लेकिन खापों ने यह नहीं देखा कि अपराधियों को दंड दिलवाना उचित था अथवा चुप रहना उचित था। उनकी चुप्पी के वजह से मीडिया में उनकी बदनामी हुई जिसका प्रतिकार नहीं किया गया। अगर करते भी तो मीडिया अपने स्टेंड से नहीं हटता और खाप की सफाई नहीं छापता। ‘दि डे-आफ्टर’ अंग्रेजी पत्रिका के १ जनवरी २००७ के अंक में ‘ज्ीम ज्लतंददल व िजीम ज्ञींचे’ “ाीर्’ाक से एक बड़ा लेख छपा जिसमें जिला भिवानी के जेवली गांव में ओमवीर और सरोज के विवाह को लेकर जेवली की पंचायत से लेकर गोत्र खाप और सर्वखाप तक में इस विवाह के विवादित मुíों पर होने वाली बैठकों के बारे में चर्चा हुई। इसी प्रकार ‘दि हिन्दू’ समाचार पत्र समूह द्वारा प्रका”िात की ंडिया डेमोक्रेटिक वूमन कांÝेस द्वारा आयोजित विचार गो’ठी अर्थात सेमीनार में हुई चर्चा का खूब हवाला दिया गया। सेमीनार में उन विवाहित दंपतियों को भी बुलाया गया था जिनके विवाह संबंधों को खाप पंचायतों ने अवैध घो’िात कर दिया था। न केवल इस पूरी रिपोर्ट का अध्ययन एवं वि”ले’ाण जरूरी है वरन इसके बाद इसी पत्रिका के दिनांक २० अगस्त २००९ के अंक में राजलक्ष्मी द्वारा पुन: इसी वि’ाय पर लिखे गये विस्तृत लेख का अध्ययन एवं वि”ाले’ाण भी जरूरी है जो कि उसी अभिप्राय से लिखा गया है जैसाकि सन २००५ में लिखा गया था। ये सभी लेख एवं रिपोट्र्स जिनके संदर्भ यहां दिये गये हैं उक्त प्रका”ानों की वेबसाइट पर भी उपलब्ध हैं। यहां यह बताया जाना जरूरी है कि सूचना क्रांति के युग में मीडिया द्वारा वेब-पब्लि”िांग पद्धति अपनाये जाने से सूचना की पहंुच दुनिया के हर उस व्यक्ति तक हो चुकी है जो किसी संबंधित मुíे पर इंटरनेट द्वारा जानकारी हासिल करना चाहता है। कुछ प्रका”ाक तो केवल वेब-पब्लि”िांग ही करते हैं और यह छूट भी देते हैं उनकी रिपोट्र्स अथवा लेखों को प्रिंट मीडिया एक समझौते के तहत छापने के लिये स्वतंत्र है। इसलिये यह समझ लेना जरूरी है कि आज के युग में मीडिया की पहंुच कितनी जबरदस्त है। मीडिया में छपी रिपोट्र्स के आधार पर पाठक, जो कि किसी भी धर्म, जाति, दे”ा, व्यवसाय और वर्ग का हो जाट जाति और इनके सामाजिक विवादों को निपटाने वाली खाप पंचायतों के प्रति क्या दृ’िटकोण अपनाता होगा यह आसानी से समझा जा सकता है अर्थात उसके मन में विरोधी राय हर पनपेगी। मीडिया के इस कंपेन का असरदार नतीजा निकलता है। ऐसी स्थिति में जाटों की मोबिलिटी, कार्य के अवसरों और समाज तथा सरकार में उनकी भागीदारी पर इनका असर पड़ना लाजिमी है। इसलिये यह प्रवृत्ति देखने में आयी है कि पढ़े-लिखे जाट परिवार जो कि खापों के इलाके या प्रभाव से दूर रहते हैं, पुराने रीति-रिवाजों और परिपाटियों को नहीं मानते और वे अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिये केवल स्त्री-पुरु’ा के बीच प्राकृतिक रि”तों, जिसमें सैक्स की प्रमुख भूमिका है, तरजीह देते हैं। यदि अमरीका में एक ही गांव के दो पृथक गोत्र के लोग अपने बच्चों का परस्पर विवाह करते हैं तो इस मामले में खाप उनका बाल भी बांका नहीं कर सकती क्योंकि भौगोलिक दूरी और दूसरे दे”ा की प्रभुसत्ता और कानून उन्हें वहां किसी किस्म की दखल अंदाजी करने की इजाजत नहीं देंगे। इसलिये खापों की प्रभुता का असली मसला एक गोत्र खाप का एक खास भौगोलिक इलाके पर कदीमी कब्जा होना और उनकी ज्यादा नफरी होना ही है। दूसरी ओर “ाहरों में रहने वाले प्रमुख एवं उच्च ”िाक्षित जाट परिवार भी खापों की ‘दादागिरी’ को नहीं मानते और अपनी मनमानी करते हैं। इस मनमानी में वे केवल ज्योग्राफिकल बैरियर्स अर्थात भौगोलिक बंध नही तोड़ते हैं। ऐसा नहीं है कि वे एकदम निकट संबंधियों में वैवाहिक रि”तों को मंजूर करके व्यभिचार की उत्पत्ति करें। उनका भी खाप पंचायतें कुछ बिगाड़ नहीं पाती। मीडिया बड़ा “ाक्ति”ााली और दुधारी हथियार है इसलिये इससे सावधान रहने की जरूरत है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब जाटों के पास अपनी कोई मीडिया पालिसी हो। ऐसा नहीं है मीडिया में खाप पंचायतों के बारे में सभी कुछ अनाप-”ानाप छपता रहा है लेकिन वि”ले’ाण करने पर पता लगता है कि मीडिया द्वारा मामले को ठीक से समझा नहीं गया और जल्दबाजी में समाचार या लेख ऐसे लोगों ने लिख डाले जो पहले से पूर्वाग्रह लेकर चल रहे थे। आ”चर्यजनक बात तो यह है कि वामपंथी और बहुजन समाज पार्टी भी खाप पंचायतों को अवैध घो’िात करवाने और उन पर सख्त कानूनी कार्रवाई करवाने की पक्षधर है। जाहिर है बहुजन समाज पार्टी का मुख्य आधार गोत्र खाप पंचायत नहीं क्योंकि परंपरा से समाज के चौथे वर्ण में आने वाले इस पार्टी के ज्यादातर कर्ताधर्ताओं का गोत्र खाप पंचायतों से कोई खास वास्ता नहीं पड़ता लेकिन नि”चय ही सर्वखाप पंचायत और ‘पूगा’ में तो वे भी “ाामिल होते ही हैं। इस बात के समर्थन के लिये प्राचीन इतिहास ग्रंथों और ‘विपेज+ कम्युनिटीज+ इन वेस्टर्न इंडिया’ नामक किताब को देख लेना चाहिये। इसलिये गोत्र खाप और सर्वखाप पंचायतों के बारे में रिपोर्टिंग और लेखन करने के मामले में मीडिया का रवैया सुधारने के लिये जाट बुद्धिजीवियों को ही पहल करनी होगी अन्यथा खापों पर लगे बदनुमा धब्बों को धोना नामुमकिन होगा।

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