सगोत्रज के लिए घरैए शब्द का प्रयोग प्रचलित है। एक ही कुटुम्ब-खानदान यानि एक ही दादा की औलाद यें हैं। एक ही दादा की औलाद ताÅ, बापू और चाचा एक अवसर पर अलग-अलग घर बसाकर बंटवारे के अलग-अलग मकानों अथवा सुयोग-सुविधा से अलग -अलग बस्ती बसाकर रहने लगे। क्या इनका खून का तथा भाई-बहन का रिश्ता समाप्त मान लिया जाये? सगे तथा ताÅ-चाचाज+ाद बहन-भाई को जैनेटिक्स का डी.एन.ए. प्रोफाईल भी पहचानता है। हमारे श्रद्धेय पूर्वजों ने मांसेरे, फुफेरे और ममेरे बहन-भाई के साथ एक ही गोत के भानजे-भानजी के वैवाहिक सम्बंध को वर्जित करार दिया है। एक ही गाँव-बस्ती की हर जांत-पांत का लड़का-लड़की भी भाई-बहन हैं। भाई-बहन में यौन सम्बंध सोच से भी परे की बात है। ‘गाँव की बेटी, सबकी बेटी’ की धारणा के साथ इसको गाँव की इज्जत माना गया है। जि+नाकारों-व्याभिचारियों पर बहन-बेटी से जि+ना का दण्ड सख्त है। सामाजिक परम्परागत सांस्कृतिक दृष्टि से बहन-बेटी को भाई, बाप आदि के साथ अष्ट मैथुन में वर्जित सोच से सुरक्षित जाना जाता है। दस हज+ार में एक ‘मनोज-बबली’ अगर अमानत में ख्+ायानत करके सामाजिकों का भरोसा तोड़ें (विश्वासघात करें) तो अपने बेटा-बेटी के बारे में हर जन आशंका से ग्रस्त रहेगा। विवाह युवक-युवति के दाम्पत्य-गृहस्थ जीवन की सामाजिक स्वीकृति है। माता-पिता आदि गुरूजनों से इस में प्रवेश की आज्ञा प्राप्त की जाती हैं। यह चोरी-छूपे कर लेने का षड़यन्त्र नहीं है। असामाजिक ही ऐसा करते हैं। वयस्क-बालिग होने का मतलब स्वेच्छाचारी होना नहीं है। खु+दपरसत-खुदपसन्द व्यक्ति के कुकर्म का सुपरिणाम उसके भाई-बहन, माँ-बाप, मामा, फूफा आदि सभी रिश्तेदारों को लांछन के रूप में भोगना पड़ता है। यें अवसादग्रस्त होकर खुदकुशी को मजबूर होते हैं। सारा समाज शंकालू, शकी, सन्देह आदि कुंठाओं से भरकर अपने पाल्यों के प्रति चिन्ताओं में घिरा रहने लगे तो जीवन नरघा हो जाये। व्यक्ति भाव-अभावन (होना और न रहना) घर की इकाई से लेकर ब्रहा्राण्ड तक हजारहा स्तरों के तानेबाने में अनस्यूत रहता है। इसकी मनसा-वाचा-कर्मणा रचनाएं सर्वथा प्रभावित होती हैं तथा सब पर प्रभाव डालती हैं। जीवन की रक्षा और इसकी आनन्दमयता-समरसता के लिए कुप्रथाओं को बारहा ध्वस्त किया जा रहा है। कानून सामाजिक आकांक्षा, शांति और समृद्धि के अनुकूल रहे। अन्तर्जातपांत विवाहों को समाज ने नहीं नकारा। परन्तु उपर्युक्त वर्जनाओं पर कोई समझौता नहीं। बहन-बेटी की अवधारणा पर विचार हो।
आश्ना होना हमारी जरूरत भी है और चाहत भी। रिश्तेदारी को जनबोली में अस्नाई (आश्ना होना) कहा जाता है। दो गृहस्थों के बेटा-बेटी का विवाह जैसे ही गोत्र से बाहर सम्पन्न होता है तो दो परिवार जुड़कर विस्तृत परिवार का औपचारिक गठन होता है। नवदम्पति को सुदृढ़ सुरक्षा कवच मिलता है। दामाद पूरे गाँव का महमान माना जाता है। उसे सलहजों तथा सालियों से हंसी-ठिठौली की छूट भी रहती है। स्नेह-प्यार का खुला माहौल बनता है। इसकी मर्यादा बतकही मात्र तक ही रहती है। हास्य ऐसा कि बड़े भी मुसकरायें-पुलकें। दोहरे रिश्तों की द्विधा-दुविधा खड़ी नहीं होती। कल तक का भाई साला नहीं बनता। ताÅ, चाचा, फूफा, मामा आदि को ससुरा नहीं कहना होता। ससुराल व मायके का पूरा फर्क बना रहता है।
‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ बनाकर कोई भी सरकार ससुराल व मायके-पीहर का भेद मिटाने का अनुचित प्रयास करने पर आमादा कैसे हो गयी? क्या असलियत में ऐसी मांग हिन्दुओं ने की थी? ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ’ की तर्ज पर ही शाक्तों, शैवों, बौद्धों, जैनों, वैष्णवों, सिक्खों आदि के बारे में विचार क्यों नहीं हुआ? कभी ‘हिन्दू’ शब्द को भारत के हर नागरिक के लिये प्रयोग किया जाता है तो कभी विशेष सम्प्रदाय के लिए। क्या संविधान अनुमति देता है कि कानून किसी सम्प्रदाय पर लागू करने के लिये पारित हो? समुदाय, समूह, क्षेत्र आदि की सामाजिक परम्पराओं को नाजायज, अवैज्ञानिक और अन्धतापूर्ण सिद्ध करने के लिए चर्चा-बहस चलाकर ही बदला जा सकता है। मुल्क, चौबीसी, सत्ताईसी, बत्तीसी आदि क्षेत्रों में आज भी जुड़ा है। इनमें भाईचारा है। इन क्षेत्रों की भावनाओं-परम्पराओं के पालक-अभिभावक क्षत्रप सभी स्थानीय गण है। यें ही ‘खाप’ नाम से जाने जाते हैं। यें छतीस जात का समूह हैं। कई खापों के लोग सर्वखाप होते हैंं। फिरंगी विरोधी जन उभाड खापांे का नतीजा था। इस सामुहिक शासना से सरकार खुद को बड़ा न माने।
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
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