मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

सामाजिक व्यवस्था और विवाह / जयपाल विद्यालंकार

मनुष्य स्वभाव से संगठनप्रिय है। अपनी सुरक्षा तथा उन्नति के लिए वह सहायता की अपेक्षा करता है। अपने सुख-दुख को वह दूसरों के साथ बांटना चाहता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति के कारण ही समाज बनता है। समाज अपने संगठित स्वरूप को बनाए रखने के लिए तथा निरन्तर उन्नति के लिए नियम और व्यवस्थाएं बनाता है। समाज को जो नियम और व्यवस्था रास आती है वह स्थाई हो जाती है और जो कसौटी पर खरी नहीं उतरती उसे छोड़ दिया जाता है या उसमें बदलाव किया जाता है। किसी भी जीवित समाज में यह बदलाव निरन्तर होने वाली प्रक्रिया है।जिस समाज में यह लचीलापन नहीं होता, उसकी व्यवस्थाओं में ठहराव आ जाता है और वह समाज इनके छिन्न-भिन्न होने से स्वत: काल कवलित हो जाता है।

सामाजिक संगठन की इकाई परिवार और परिवार का उद्गम विवाह से होता है। किसी भी समाज में मनुष्य विवाह करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है। विवाह का एक सामाजिक तथा कानूनी पक्ष भी है। वर-वधू के चुनाव को नियमों से व्यवस्थित किया गया है। किसी भी मानव समाज में नर-नारी को उस समय तक दाम्पत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाता, जब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा कानून द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होने वाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। विवाह वर-वधू की सहमति से बना अनुबन्ध होने पर भी इस अर्थ में अन्य अनुबन्धों से भिन्न है कि इसकी शर्तें, कर्त्तव्य और दायित्व केवल वर-वधू तय नहीं करते बल्कि इसमें समाज तथा कानून का भी हाथ होता है।

विवाह का सामाजिक और नैतिक पक्ष भी महत्वपूर्ण है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतति परिवार में रहते हुए ही समुचित विकास और प्रशिक्षण प्राप्त करके समाज का उपयोगी अंग बनती है। विवाह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई परिवार का मूल है। इसके टूटने पर समाज की सत्ता और उस पर आश्रित मानव-सभ्यता का टूटना स्वत: आरम्भ हो जाता है। लगभग सभी समाजों में विवाह के दो आधारभूत तरीके होते हैं - अन्तर्विवाह और बहिर्विवाह। अन्तर्विवाह के अनुसार एक विशष्टि वर्ग के पुरूष को उसी वर्ग के अंतर्गत वधू को चुनना होता है जबकि बहिर्विवाह के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को एक विशष्टि समुदाय के बाहर से ही वधू का चुनाव करना होता है। यह दोनों नियम परस्पर विरोधी प्रतीत होते हुए भी परस्पर विरोधी नहीं हैं क्योंकि इनका संबन्ध भिन्न प्रकार के समूहों से होता है। इन नियमों को वृत्त के उदाहरण से समझा जा सकता है।

प्रत्येक समाज में एक विशाल बाहरी वृत्त होता है और इस बडे़ वृत्त के भीतर अनेक छोटे-छोटे वृत्त होते हैं। हिन्दू समाज में एक विशाल वृत्त जाति का और इसके अन्तर्गत कई छोटे-छोटे गोत्र के वृत्त हैं। सामाजिक व्यवस्था की अपेक्षा रहती है कि हमारे समाज का व्यक्ति अपने विस्तृत वृत्त से उस वधू का चुनाव करे जो छोटे वृत्त से बाहर की हो। इस व्यवस्था का तर्कसंगत आधार है। प्रत्येक समाज अपने संगठन को सुदृढ़ बनाये रखना चाहता है। इस मजबूती के लिए जरूरी है कि समाज के सभी सदस्यों को परस्पर संबद्ध रखा जाये। दूसरे समाज से सम्बन्ध की प्रवृत्ति बढ़ने पर यह संभावना ही अधिक होती है कि अपने समाज के प्रतिभावान युवक-युवतियां धीरे-धीरे अपने समाज से कटते जायें। इसी के चलते प्रत्येक समाज स्वभावत: अन्तर्विवाह का पक्षधर होता है। जाति के विशाल बाह्य वृत्त के अन्तर्गत छोटे गोत्र वृत्त से बहिर्विवाह का मुख्य कारण युवावर्ग की चारित्रिक शुचिता बनाये रखना है। अधिकतर गांवों के सभी निवासी प्राय: एक ही गोत्र के होते हैं। छह-सात पीढ़ी पहले तक यदि टटोला जाए तो ये सब एक पुरूष की सन्तान होते हैं। गांव के बच्चे जो एक साथ रहते-खेलते बडे़ होते हैं, जब यौवन की दहलीज पर पैर रखते हैं तो उन्हें प्रबल यौन-आकर्षण से बचाना परिवार और समाज का कर्तव्य होता है। इनमें परस्पर बहन-भाई के सम्बन्ध की मानसिकता, जो परिवेश तथा संस्कारों से प्राप्त होकर समूचे व्यक्तित्व का अपरिहार्य हिस्सा बन चुकी होती है, युवकों के चरित्र का संरक्षण करती है। गोत्र संबन्ध की यह मानसिकता उत्तरभारत के राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, पंजाब और हिमाचल में प्रचलित परस्पर मान-सम्मान के सूचक अनेक रीति-रिवाजों से कदम-कदम पर पुष्ट होती रहती है। इसके अतिरिक्त यह वैज्ञानिक तथ्य है कि अपने वर्ग (गोत्र) में विवाह करने से सन्तान स्वस्थ नहीं होगी । इसके विपरीत भिन्न वर्ग में विवाह से उत्पन्न सन्तान स्वस्थ बलवती और दीर्घजीवी होगी। हिन्दू विवाह कानून में भी खून और दूध के सम्बन्ध अर्थात माता-पिता की सन्तति (भाई-बहिन) से विवाह को वर्जित माना गया है। वर्जना का यह न्यूनतम दायरा है। धर्मशास्त्रों में इसका विस्तार सात पीढ़ी तक किया गया है। सामाजिक व्यवस्था ने इसे सरल करके पूरे गोत्र तक फैलाया है।

गत वर्षों में उत्तर भारत में विशेष रूप से हरियाणा में सगोत्र विवाह की कुछ घटनाएं हुई हैं। इन प्रसंगों में विवाहित युवकों के परिवारों ने या क्षेत्रीय गोत्र (खाप) पंचायतों ने जो आपत्ति जताई, उसके परिणामस्वरूप सगोत्रीय विवाह करने वाले युवकों को जान से मारा गया, आत्महत्या करने के लिए बाध्य किया गया या अन्य प्रकार से प्रताड़ित किया गया। उन युवकों ने सामाजिक-व्यवस्था को तोड़ा परन्तु उन्हें दंडित करने वालों ने भी कानून तोड़ कर अपराध किया। समाज ने अपनी निगाह में अपनी गरिमा की रक्षा कर ली और न्याय प्रक्रिया ने अपराधियों को दंडित करके अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर लिया। दोनों पक्षों दंडित होने पर भी समस्या ज्यों की त्यों बनी रही। समस्या का निदान समाज को, जिसका नेतृत्व खाप या सर्वखाप पंचायतें कर रही हैं और सरकार को, जो समाज के हित के लिये ही कानून बनाती है, मिलकर करना चाहिये। साथ ही राजनीतिक दलों को भी यह समझना होगा कि कार्यपालिका भी उस समाज का हिस्सा है जो सगोत्र विवाह की वर्जना को बनाये रखना चाहता है।

मात्र आदेशों के बल पर पूरे समाज के विरूद्ध लोकतंत्र में कार्रवाई करना आसान नहीं होता। साथ ही खाप पंचायतों को भी समझना चाहिए कि सामाजिक नियम समाज के सदस्य स्वयं अपनी इच्छा से स्वीकार करते हैं, इसके लिए बलपूर्वक किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। आप यह तो कर सकते हैं कि नियम तोड़ने वाले से अपना संबंध न रखें परन्तु कानून के दायरे में आने वाला कोई दंड देने का अधिकार आप को नहीं है। बेहतर होगा कि प्रशासन से मिलकर बातचीत के जरिये पंचायतें हिन्दू विवाह कानून में अपेक्षित बदलाव के लिये प्रयत्न करें। पहले खाप पंचायतों को लोकतांत्रिक स्वरूप में आना होगा, फिर एक सर्वसम्मत व्यवस्था के अनुरूप ही सर्वखाप पंचायत का गठन करना होगा। तभी इस सामाजिक संगठन को वह शक्ति मिलेगी जिसके आधार पर इसके निर्णय समाज में प्रभावी होंगे।

हाल में शोएब व आयशा के विवाह-विवाद को जिस तरह मुस्लिम समाज के मान्य लोगों ने सुलझाया वह सराहनीय है। इस प्रकार के सामाजिक विवाद पुलिस या कोर्ट-कचहरी से सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। पंचायती संगठन और परिवारों को भी जान लेना चाहिये कि समाज के युवा सदस्य जब किसी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं तो किसी हद तक समाज भी दोषी होता है। परिवार और समाज ही शायद उन्हें ठीक से वह संस्कार नहीं दे सके जिससे वे समाजिक मर्यादा को अपना समझ कर उसकी सीमा में रहते या परस्पर संवाद कर उसमें बदलाव के लिए आवाज उठाते।
(साभार : मंथन, राष्ट्रीय सहारा २५ अप्रैल, २०१० )

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