गोत्र विवाद : समाधान का एक पहलू
-ले.कर्नल चन्द्र सिंह दलाल,
संयोजक, ग्रामीण अधिकार मंच, रोहतक
हम सभी बै’ााखी के पुण्य पर्व पर सामाजिक समस्याओं पर विचार करने के लिए एकत्रित हुए हैं और अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी जगह के रहनुमा भी हैं। इन सामाजिक कुरीतियों पर विचार करते समय एक समस्या जिसकी ओर हम सबका ध्यान बिना कहे ही चला जाता है, वह है गोत्र तथा गाँव बिरादरी के अन्दर प्रचलित रीति-रिवाओं को एक तरफ रख करके आधुनिकता के नाम पर बाल@बालिकाओं द्वारा अपने गोत्र और अपने गाँव में ही परस्पर विवाह करना। जोकि सामाजिक तौरपर हमारे समाज को अभी तक मान्य नहीं है। चाहे वह ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५’ के अन्तर्गत कानून की कसौटी पर ठीक तथा वैध समझा जाता है। पिछले वर्षों में इस संबंध में कई स्थानों पर तरह-तरह की समस्याएं खड़ी होती रही हैं, जिनमें मुख्य रूप से जौणधी, असान्ढ़ा, ढ़राणा, कबूलपूर, बलहम्बा, करौड़ा, समसपूर इत्यादि शामिल हैं, जिनका समाधान करने के लिए खाप पंचायतें, प्रशासन, न्यायपालिका, बुद्धिजीवी तथा स्वयंसेवी संस्थाएं अपने-अपने तरीके से व्यस्त रही हैं। हम यहाँ पर किसी घटना विशेष की अच्छाई-बुराईयों का विश्लेषण कतई नहीं करेंगे। लेकिन अजीब बात यह है कि इस सिलसिले में कोई भी राजनेता आगे क्यों नहीं आया है, जोकि इस जटिल समस्या का समाधान पाने में सहायक हो सके?
यहाँ पर यह कह देना भी अनुचित नहीं होगा कि अभी तक हम इस प्रकार के विवादों का कोई सर्वमान्य हल नहीं ढ़ूंढ़ पाये हैं। इस सिलसिले में सितम्बर, २००९ में द्वितीय सर्वगोत्र मुखिया सम्मेलन ग्रामीण अधिकार मंच, (अराजनीतिक संगठन) के तत्वाधान में दीनबन्धु छोटूराम धर्मशाला, रोहतक के प्रांगण में सम्पन्न हुआ था, जिसके प्रधान पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.एस. तेवतिया थे। इसमें एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से परित किया गया था, जिसमें लिखा था कि यदि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५’ के अन्तर्गत न्यायोचित संशोधन कर दिया जाए तो हमारी बहुत सी समस्या का हल हो सकता है। इस तथ्य पर विचार-विमर्’ा करके मैंने और मेरे सहयोगियों ने एक प्रारूप बनाया है कि यह संशोधन किस प्रकार से और किस द्वारा किया जा सकता है। कहना न होगा कि इसका विवरण दिल्ली से प्रकाशित ‘सूरज-सुजान’ मासिक पत्र के जनवरी, २०१० के अंक में प्रकाशित हो चुका है।
मैं इस विषय पर आपके सम्मुख तथ्यों पर आधारित एक सुझाव रखने से पूर्व यह कहना चाहूँगा कि सर्वखाप पंचायतें अन्तरजातिय ;प्दजमतबंेजमद्ध विवाह तथा इस प्रकार के किसी भी विवाह पर कभी ऐतराज नहीं करती है। वह तो अपना सांस्कृतिक वजूद कायम रखना चाहती हंै। ग्रामीण समाज का भाईचारा कायम रखना चाहती हैं। इसलिए गौत्र और गाँव के अन्दर विवाह का ऐतराज करती है।
बहुत से भाई प्रश्न करते हैं कि इस संशोधन के लिए कौन सक्षम है? इसके उत्तर में मैं यह बताना चाहता हूँ कि यदि हम भारत के संविधान के आर्टिकल अथवा अनुच्छेद २४६ को पढ़ें तो उसके अन्तर्गत कानून बनाने तथा उनमें संशोधन करने के लिए मुख्य रूप से तीन मुख्य सूचियाँ बनीं हुई हैं।
पहली सूची, जिसे ‘संघ सूची’ अथवा ‘यूनियन-लिस्ट’ कहते हैं जिसके अन्तर्गत उन कानूनों का जिक्र किया गया है, जोकि संसद के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
दूसरी सूची, जिसे ‘राज्य सूची’ अथवा ‘स्टेट-लिस्ट’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें दिए गए कानूनों के बनाने अथवा संशोधन के अधिकार विधानसभाओं को दिए गए हैं।
तीसरी सूची, जिसे ‘समवर्ती सूची’ अथवा ‘कंकरेट-लिस्ट’ कहते हैं, में दिए गए कानूनों को बनाने अथवा संशोधित करने के अधिकार संसद अथवा विधानसभा, दोनों को हैं। यद्यपि विधानसभाएं इनके प्रति अपनी विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले क्षेत्र के लिए नए कानून अथवा उनमें संशोधन भी कर सकती हैं।
ज्ञातव्य है कि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५’ चाहे संसद द्वारा पारित किया गया है, लेकिन भारत के संविधान के पृष्ठ १७१ पर दी गई ‘समवर्ती सूची’ अथवा ‘कंकरेट-लिस्ट’ के अन्तर्गत आने वाली सूची के क्रमांक ५ पर आता है और इसमें लिखा है कि ‘विवाह’ और ‘विवाह-विच्छेद’ इत्यादि के विषय में विधानसभा संशोधन करने के लिए सक्षम है। अत: यदि हरियाणा विधानसभा चाहेगी तो आवश्यक संशोधन किया जा सकता है।
हम अब यह देखना चाहते हैं कि एक ही गोत्र तथा एक ही गाँव में विवाह होने पर जब ‘विवाहित-जोड़ा’ घर परिवार से बगावत करके न्यायालय का सहारा लेता है तो न्यायालय केवल मात्र ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, १९५५’ की धारा ५ के अन्तर्गत लिखी गई शर्तों के आधार पर ऐसे विवाहों की वैधता पर कानूनी फैसला देता है। हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा ५ के अन्तर्गत आने वाली शर्तें इस प्रकार हैं :-
१. दोनों पक्षों के पति अथवा पत्नी विवाह के समय जीवित नहीं हैं।
२. विवाह के समय दोनों पक्षकार में से कोई पक्षकार दिमागी तौरपर विवाह की ‘हाँ’ कहने लायक है तथा दिमागी तौरपर तो ‘हाँ’ कहने की योग्यता तो है लेकिन इतना पागल तो नहीं है कि बच्चे ही पैदा न हो सकें?
३. विवाह के समय लड़के की आयु २१ व लड़की की आयु १८ वर्ष पूरी हो चुकी है।
४. पक्षकार प्रतिसिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर तो नहीं हैं, जिसे हम ‘डिग्री आWफ प्रोहिविटेड रिलेशनशिप’ कहते हैं।
५. एक दूसरे के ‘सपिण्ड’ तो नहीं हैं? इसका अर्थ है कि माता की तीसरी पीढ़ी Åपरवाली तक और पिता कि Åपर वाली पाँचवीं पीढ़ी तक का रिश्ता ना हो।
ये पाँच शर्तें पूरी होने पर विवाह को कानूनी तौरपर वैध घोषित कर दिया जाता है, चाहे दोनों पक्षकार एक ही गाँव अथवा साथ लगते गाँव के हों अथवा चाहे एक ही गोत्र के ही क्यों न हों! और वे बेसक से एक ही मोहल्ले के भी क्यों न हों!
हम यहाँ पर ‘डिग्री आWफ प्रोहिविटेड रिलेशनशिप’ का विस्तार से जिक्र करना चाहेंगे, जिसके अन्तर्गत हम संशोधन करने की बात पर विचार करेंगे।
इसके अन्तर्गत ‘डिग्री आWफ प्रोहिविटेड रिलेशनशिप’ की व्याख्या करते समय लिखा है कि लड़का और लड़की एक-दूसरे के परम्परागत अग्ररूप तो नहीं हैं। या उनके वंशज की पति या पत्नी तो नहीं हैं? तथा इसी प्रकार भाई-बहन, चाचा-भतीजी, चाची-भतीजा या दो भाईयों अथवा दो बहनों की औलाद तो नहीं हैं। ‘सहोदर’ तथा ‘सौतेले’ भी इसी में शामिल हैं। ग्रामीण अधिकार मंच की ओर से हम यहाँ पर यह कहना चाहते हैं कि ‘डिग्री आWफ प्रोहिविटेड रिलेशनशिप’ के अन्तर्गत जहाँ पर ‘हिन्दू-विवाह अधिनियम, १९५५’ की धारा ३ के अन्तर्गत उपधारा ‘छ’ में उपधाराएं संख्या चार तक की गई हैं। वहाँ पर संख्या पाँच और जोड़ दी जाए, जिसमें लिख दिया जाए कि, "पक्षकार एक गौत्र, एक गाँव और सीम जोड़ गाँव के हों तो इस प्रकार के विवाह को वैध नहीं कहा जाएगा।"
यदि आप रोहतक जिले के रीति-रिवाजों से सम्बन्धित कानूनों पर आधारित श्री ई.जॉजिफ, आई.ए.एस., सैटलमैन्ट आWफिसर द्वारा १९१० में लिखित पुस्तक का अवलोकन करें तो पाएंगे कि उन्होने विवाह (जिसको पुस्तक के सैक्’ान ३ में दिया गया है) के अन्तर्गत (डिग्री आWफ प्रोहिविटेड रिलेशनशिप) का जिक्र करते हुए प्रश्न १२ पृष्ठ २७ व २८ पर यह उल्लेख किया है कि विवाह गाँव और सीम-जोड़ गाँव में नहीं होना चाहिए।
इसलिए हम नम्रता से यह कहना चाहेंगे कि इस संशोधन की माँग करते समय हम किसी दूसरी जाति अथवा पक्ष के किसी भी नियम का न तो उल्लंघन कर रहे हैं और न ही हम किसी से कुछ माँग रहे हैं। दूसरे शब्दों में हम किसी दूसरे के पाँव पर पाँव नहीं रख रहे हैं। हम मीडिया से सम्बंधित रहनुमाओं से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारी ‘हिन्दू विवाह अधिनिमय, १९५५’ में संशोधन करने की माँग के विषय में सोच विचार करके बताएं कि हमारी यह माँग उचित है अथवा नहीं। और यदि उचित नहीं है तो क्यों नहीं? यदि उचित है तो वे संशोधन की मांग करने वालों का साथ दें, ताकि भविष्य में उभरने वाली समस्याओं का समाधाना हो सके। हम उनके आभारी रहेंगे।
हम तो हरियाणा के विधायकों से निवेदन कर रहे हैं कि वे हरियाणा सरकार के "लीगल रिमेंम्बरेसर" के द्वारा जाँच करवाकर यदि ठीक समझें तो आगे आने वाले विधानसभा के अधिवेशन में यह संशोधन विधानसभा के पटल पर रख, इसपर सोच विचार तो कर ही सकते हैं।
इससे पहले कि मैं अपनी बात समाप्त करूं मैं यह कहना चाहता हूँ कि बहुत से लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि ‘गोत्र’ का क्या तानाबाना है। मैं इसे स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ‘गोत्र’ कुछ भी नहीं है, सिवाय एक दादा की औलाद के ‘भाई-बन्ध’ के, जिनका भाईचारा सदियों से कायम होकर आजतक चला आ रहा है और हमारे विचार से आगे भी चलता रहेगा। यदि आप इस विषय में और स्पष्टीकरण चाहते हैं तो अभी प्रश्न कर सकते हैं।
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
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