थोड़ा पीछे मुड़कर देख लंे। बेसरोसामानी का आदिम युग था। वनोपज पर ही हमारे पूर्वजों का जीवन निर्भर था। होमो-करेक्टस भी होमोसेपियंस था। पशु मादा की तरह तत्कालीन नारी थी। रितुधर्मा गर्भधारण करती। और जाया शक्ति बनती। वेद संहिता में नारी का एक पर्याय क्षेत्र यानि खेत बार-बार आया है। इस क्षेत्र का पालन-रक्षण कबीले के प्रौढ़ों का सामूहिक दायित्व बनता था। यह समूह क्षत्रप यानि खाप कहलाया। बड़ी माँ अपने जनों-जनों (जिनको उसने जन्म दिया) पर स्वाभाविक शासन रखती। सबको जोड़कर वही रखती। खाप-प्रौढ़ समिति अपने नारी रूपी खेतों, शिशुओं, किशोरों, युवक-युवतियों आदि की संरक्षक-अभिभावक होती। मौज तब भी होती थी। स्वजन की मृत, देह को वहीं छोड़कर कबीला नए आवास की तलाश करता अथवा इस मृत देह को वहीं छोड़कर कबीला नए आवास की तलाश करता अथवा मृत देह को ही दूर हटाता। खै+र खाप फैसला करती। इसी दौर में वनोपज पर निर्भर कबीले अखेट युग को पार करते पशुपालक हो गये। इनके लिए एक शब्द आया गोप यानि गोपालक। इनको चारागाह, पानी, मौसम की मार आदि के सापेक्ष मैदानों में आना लाजि+मि हुआ। दूसरे कबीलों से टकराव भी बने। दीगर कबीलों के नवयुवक-नवयुवति परस्पर आमने-सामने पड़ते तो आकर्षण बढ़ता। मुग्धा, प्रगल्भा आदि के साथ स्वयंवरण का दौर चला। खाप-खाप को स्वजनों (जणों) की रक्षा में सर्वखाप पंचायत बैठाने की आवश्यकता का अनुभव हुआ। मुग्धा कन्याओं के कबीला छोड़कर जाने-भागने के उदाहरण सामने थे। उनकी खेत की जाया शक्ति के रूप में स्वीकार्यता भी बनी थी। नर अवांछित था। अत: सर्वखाप में कन्या को पराया-धन मानकर दूसरे कबीले में ब्याह देने की परिपाटी बनी। मार्गन ने इसे रैड इंडियन्स कबीले की Ýेटरी कहा है। कबीला यानि सर्वखाप तथा Ýेटरी यानि गोत्र खाप।
किसानी-खेती, दस्तकारी, कारीगरी आदि जैसे ही उपज-उत्पादन का साधन औजार बने तथा आदमी और पशु Åर्जा का उपयोग होने लगा, तो स्थाई निवास के बतौर गाँव आबाद हुये। खाप की अवधारण भी जमीनी क्षेत्र से जुड़ गयी। खापों ने गण सेवकों यानि अपने जल, जंगल, जमीन, फसल आदि के रखवाले-रक्षक के रूप में राजन्य की नियुक्ति की। इसके लिये बलि स्वरूप अपनी उपज का छठवां भाग देना निश्चित किया। शत्रु से युद्ध हो या हिंसक पशु का शिकार, राजा को युद्ध कला का विशेषज्ञ मानकर उसके नेतृत्व में अस्थाई स्वैच्छिक (वालिंटयर) सैनिक तो ग्रामीण ही होते। खाप-सर्वखाप पंचायत के निर्णय पर ही ये राजा के सहायक होते। राजाओं के परस्पर निजी युद्धों में खाप-सर्वखाप हमेशा उदासीन रहतीं। इस तरह से दो तरह के युद्ध होते। जब-जब कोई राजा प्रजा की अपनी खाप व्यवस्था में हस्तक्षेप के लिए शासक के रूप में, आदेशदाता के रूप में, उभरा उसको सत्ता से उखड़ना पड़ा। उसके अनुवर्ती को जन अपेक्षाओं पर खरा उतरना पड़ा। इसके कई उदाहरण हैं। पितृहन्ता, हेहेय वंश का उन्मुलन हुआ। घन नन्द के बाद चाणक्य-चन्द्रगुप्त मौर्य का राज हुआ। मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा आयद टैक्स फिरोज तुगलक को समाप्त करने पड़े। औरंगजेब ने शाहजहां की शोषण नीति को पलटकर ही लम्बे समय तक गद्दी संभाली। सैयद अहमद शहीद को १८२७-३१ ई. में भरपूर जन सहयोग कम्पनी सरकार के विरूद्ध मिला। १८५७-५८ ई. में ऐसे जन उभाड के विरोध से कम्पनी सरकार गयी। ब्रिटिश ताज में लोगों को पूर्व राजाओं जैसी ही उम्मीद जगी थी। इनके विरोध में खड़े होेने वालों को १९१४ हो या १९१५ या १९३१ या १९४२ में राजा महेन्द्र प्रताप, गदर पार्टी, भगत सिंह आदि, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष बोस आदि को खाप-सर्वखाप ने पूरा सहयोग दिया। डॉ. ब्रह्म देव शर्मा (गाँव गणराज्य) तथा ज्ञान सिंह (देश हमारा राह हमारी) की स्पष्ट स्थापनाओं के साथ जनगण में पैठ बना रहे हैं। महेन्द्र सिंह टिकैत व स्वामी राम देव को लोगों का सम्मान इनके देसी माटी के पूत होने के कारण मिल रहा है।
खाप-सर्वखाप पंचायतों यानि भारत के जन मानस को मालूम है कि घर-गृहस्थ, कुटुम्ब-परिवार, स्थानीय समाज आदि संस्थाओं को कम्पनी सरकार से लेकर आज तथाकथित राजसत्ता ने विधि-विधान से खारिज कर रखा है। विधायिका और न्यायपालिका व्यक्ति को सर्वोपरि और विछिन्न मानकर व्यवस्थाएं दे रहे हैं। ढ़ाई सौ वर्षों के लगभग लम्बी इंडियन (अंग्रेजीयती) कानूनों की सशस्त्र हुकूमत इन स्वयंभू संस्थाओं को नेस्तोनाबूद नहीं कर सकीं। क्यों? क्योंकि इन तीनों संस्थाओं की व्यक्ति के लिए उपयोगिता निश्शेष नहीं हो पा रही हैं। पूंजीवादी व्यक्तिवादिता तथा साम्यवादी सामूहिकता सहज और स्वाभाविक प्राकृतिक नहीं हैं। दोनों ही थोपी गई हैं। दोनों ही व्यवस्थाओं की नियन्ता राजसत्ता है -सशस्त्र राजसत्ता। इनका उद्भव सम्पति, पूंजी और सत्ता के चन्द व्यक्तियों में संकेन्द्रण से है। घर-गृहस्थ, परिवार, समाज, खाप और सर्वखाप की व्यवस्था अकेन्द्रता की है। इन संस्थाओं के सदस्य परस्पर अपनत्व भाव से जुड़े होते हैं। तन्त्र का बन्धन इन पर अपने बड़ों-छोटों के श्रद्धा-स्नेह के बाद की बात रहता है। इन संस्थओं का हर फैसला अपनों द्वारा तथ्यों पर टिके सत्य द्वारा लिया जाता है। देशकाल, परिवेश के साथ गतिशील धर्म इनका आधार होता है। ‘हा, मा, धिक’ इनका सिद्धान्त रहता है। बहिष्कार और निष्कासन यानि देसबदर इनके कठोरतम दंड हैं। दुष्ट को दंड देने का जिम्मा भी इन्होंने राजा पर डाला है। बिकाÅ वकील, पक्षधर गवाह, वेतनभोगी जज वगैरह का यहां स्थान नहीं रहता। छत्तीस जात की सर्वखाप पंचायतों में किसी की दबंगई नहीं चलती। पक्ष ही पंच चुनते हैं। स्थाई पदाधिकारी यहां नहीं होते। ब्रिटिश राज की गुलाम परम्परा में पड़े लोग इस सर्वोच्च व्यवस्था से अलगाव रखते हैं। कुछ भटकाव इनके समर्थकों में भी आया है। ‘हत्या’ का दंड देना इनकी आचार संहिता में कभी नहीं रहा। प्रौढ़ अभिभावक खाप समूह होते हैं। डायन माँ भी अपने जणों को नहीं खातीं।
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
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