शनिवार, 24 अप्रैल 2010

खाप व्यवस्था पर ताजा आक्षेपों से उपजते सवाल / ज्ञान सिंह

खाप व्यवस्था पर ताजा आक्षेपों से उपजते सवाल

ज्ञान सिंह

पिछले समय से कुछेक घटनाओं को लेकर दे”ा के इस वि“ााल ग्रामीण भूभाग में आदिकाल से चली आ रही सामाजिक रि”तों की ‘खाप व्यवस्था’ पर प्र”नचिन्ह लगाने का सिलसिला तेजी पर है और अखबारी जगत में देहाती “ौली की खाप व्यवस्था पर तीब्र बहस जारी है. आक्षेपों की बाढ है. कुछ सवाल उछले हैं, जिनकी आड़ में ”िाकार पंर नि”ााना सधा है. किन्तु सवालों की गहराई में न जाकर इनका ढाल के रूप में प्रयोग विस्मयकारी है. अत: सवाल पर बिछाई गई गहरी काई की परत को छांटने के विचार से आव”यक है कि इनकी सावधानीपूर्वक पड़ताल हो.
देख-सुन कर कुछ हैरानी नहीं हुई कि अनेक कथित बुद्धिजीवी और पत्रकार खाप व्यवस्था पर अपने अल्पज्ञान के चलते बेसिरपैर के आक्षेप लगाने पर उतारू हैं. कोई इसे संकीर्ण मानसिकता की नि”ाानी बता रहा है तो कुछ सामंती गवंारूपन! इससे पढे-लिखे होने तथा आधुनिकता के स्वयंभू प्रणेता होने का इनका दम्भ देखते बनता है. ये लोग अपने को ‘व्यक्ति स्वतन्त्रता’ का बड़ा अलम्बरदार बता कर यह पाप कर रहे हैं. किन्तु अनजाने ही सही, ‘व्यक्ति स्वतन्त्रता’ की उनकी बात इन्हें जहां घर-परिचार एवं खाप-समाज के विरोध में खड़ा कर देती है, वहीं कानून और संविधान का हवाला अचरज भरा अल्पज्ञान है. घर-परिवार और गांव समाज को दरकिनार करके व्यक्ति स्वतन्त्रता की दुहाई में छिपी कलु”िात मं“ाा का अब तक सीधा जवाब ये लोग देने से बच रहे हैं. पूछा जा सकता है, ये लोग इसका सीधा जवाब क्यों न दें? जवाब देंगे, तो घोर व्यक्तिवाद का इनका रूप सामने आ कर खड़ा हो जायेगा जो पूंजीवाद की सीधी वकालत है!
आरम्भ में ही एक बात याद करा देना बेहतर होगा कि यह अभियान हरयाणा के गांव जौंधी, बलहम्बा, सिवाना या ढराणा जैसी ताजा घटनाओं को लेकर ही चालू नहीं हुआ है, इसकी ”ाुरुआत उस दिन हुई थी जब आजाद दे”ा के लिए संविधान का मसौदा संविधान सभा में विचार के लिए पे”ा हुआ था. उस दिन देहात की जीवन पद्धति पर हमले का ऐलान हुआ था. यह जंग तब से, कभी तेज तो कभी मद्धम रफतार से, लगातार जारी है. न यह हैरानी वाला मामला है. हैरानी उन्हंे हो सकती है जो हालात पर निगाह रख कर नहीं चल रहे हैं. उपजते सवाल.
तबसे लगातार जारी इस जंग की प्रकृति में एक बदलाव आया है. उद्योग-व्यवपार की सेवा में व्यतिक्तवाद पर टिकी तहजीब के पैरोकार ग्रामीण तहजीब व जीवनमूल्यों को रौंदने का अपना युद्ध संविधान, कानून, पुलिस-प्र“ाासन व अदालत और अखबारी दुनियां की मदद से गाली-गलोच से भरपूर प्रचार के दम पर जीतना चाहते हैं जबकि निहत्था ग्रामीण भारत अपनी तहजीब को बचाने की लड़ाई में मात्र अपने रीति-रिवाजों व जीवनमूल्यों की ताकत व भाईचारे के सहारे पर खड़ा है. स्कूल-कालिज व वि”वद्यिालयों में अनुभवहीन किन्तु रोजगार के लिए लालायित नौजवान पीढी को घर-परिवार के मूल्यों से हटा कर इस युद्ध के लिए अपने सैनिक बनाने की पूंजी के सरदारों को अलग से सुविधा मिल गई है.
एक तरह से कहा जा सकता है कि यह दो तहजीब अर्थात दो विपरीत लक्ष्यों वाली संस्कृतियों के बीच की अनकही जंग है और अब उदारीकरण व जगतीकरण अभियान के एक खास स्थिति पर पहुंच जाने के बाद इसमें बेहद तीखापन आया है जब ग्रामीण जीवन”ौली को मलियामेट करने पर जोर है ताकि इस आबादी को निर्बाध पूंजी की सेवा में जोता जा सके. वर्’ा १९८५ में जिस उदारीकरण अभियान की सहजगति से “ाुरुआत हुई थी और वर्’ा १९९१ में खुला ऐलान हुआ था, अब एक स्तर पार कर लेने के बाद, हासिल अपनी सफलता पर अभिभूत हो कर इस जंग का सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पदार्पण हो रहा है.
यह भी साफ हुआ है कि इस अभियान में लगे मीडिया के इस प्रभावी हिस्से और इनकी मदद से पनपने वाले इस बुद्धिजीवी तबके ने ग्रामीण भारत की सामाजिक बुनगत को पलटने की जिम्मेदारी स्वयं ही अपने कंध्ंो पर ले ली है और एक सतत बेसांस अभियान में लगे हुए हैं. लेकिन यह मुठ्ठीभर लोग समाज पर जो सामाजिक व्यवस्था बदले में लादना चाह रहे हंै, उसके भयानक खतरे से या तो ये अनजान हंै या किन्ही स्वार्थों के लिए आंख बंद करके चल रहे हैं.
एक बात कह देने से इस बहस में मामला स्प’ट हो जायेगा. वर्’ा १९४७ के बाद से स्वतन्त्र दे”ा के बतौर लाभ उठाने वाले मध्यम तबके को हक है कि वह वर्तमान व्यवस्था का गुणगाण करे जिससे वह इस अवधि में मालामाल हुआ है. लेकिन उसको कोई हक नहीं है कि वह दे”ा की उस ८० प्रति’ात आबादी पर अपना नजरिया थौंपे जो इस विकासपथ की ”िाकार बन कर इसके दु’परिणाम स्वरूप आज वंचितों के रेले में ”ाामिल है.
जिन्हें जनतान्त्रिक मूल्यों का जरा भी जिहाज है वे बेहिचक मानेंगे कि दे”ा की ग्रामीण आबादी को हांकने का इस अभियान पर उतारू तबके को कोई हक नहीं बनता है जिसे यह अपने नजरिये से आधुनिक बनाने पर उतारू है. एक तरह से ग्रामीण भारत को निपट गवांरू समझने वाले लोग लगता है अपनी जीवन”ौली को गांव पर थौंपने के लिए बेचैन लगते हैं. इनकी ओर से ग्रामीण जीवन पद्धति को लांछित करने का जोरदार अभियान चल रहा है तथा उसकी जीवन”ौली को मिटाने की मांग उठ रही है. बिन संकोच कहा जा सकता है कि उनकी यह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की प्रवृति दे”ा के लिए बेहद खतरनाक रुझान है जिसका समय रहते कड़ा विरोध होना चाहिए. ग्रामीण भारत के लिए क्या अच्छा है इसकी तमीज उसी की बुद्धि पर छोड़ देनी चाहिए. अपने भवि’य का निणर्यकरना उसका अपना हक है और फर्ज भी. पराई संस्कृति से अलंकृत विद्वान टोली इस हक को मिटाने की कुचे’टा करेगी तो परिणाम हितकर नहीं हो सकते हें.
यह पूरी तरह स्प’ट है कि ”ाहरी तहजीब से लबालब यह तबका अपनी सोच और जीवन”ौली को देहात पर थौंपने का अभियान चलाए हुए है. उसे बहुत वहम है कि वही आधुनिकता का स्वयंभू ठेकेदार है और इस ‘गवांरू’ देहात को अपने नजरिये से आधुनिक बना कर छोड़ेगा! इसी अभियान के लिए वह किसी अवसर को अपने हाथ से खिसकने नहीं देता है. ढराणा, बलहम्बा, सिवाना या इससे पहले जौंधी की दुखद घटनाएं इन्हें यह अवसर प्रदान करती हैं.
यहां स्प’ट हो कि खाप पंचायतों के निर्णयों में सब कुछ ठीक है, यह दावा किसी का नहीं है. सही व गलत की पहचान अलग प्र”न हैं. किल्तु कहीं गलती हुई है इसीलिए खाप पंचायतों को दे”ा बदर कर दिया जाए, ऐसी अतार्किक मांग के पीछे की मं”ाा खोटी है. सी.पी.एम अथवा उन जैसे कथित माक्र्सवदियों का ऐजेण्डा पूंजी की सेवा है, इसलिए वे घेर व्यक्तिवाद की वकालत पर उतरे हुए हैं. इससे अवामी हित को कोई लाभ नहीं है. उलट, वे माक्र्सवाद जैसे दर्”ान को मलिन करने का ही काम कर रहे हैं. इससे अधिक उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है, न हो सकता है!
पिछले कुछ सालों से अन्तर-गोत्र अथवा पडौस की लड़की से बलात्कार तथा विवाह रचाने की घटनाओं में उछाल आया है. पडौस की लडकियों को भगा ले जाने व विवाह सम्बंधी सामाजिक वर्जनाओं को लांघने की नौजवानों में प्रवृति बढी है. क्या ऐसे आचरण को व्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाम दिया जा सकता है और अपराध अक्षमय बन जाता है? संविधान में मौलिक अधिकारों की ऐसी समझ भैंगी ही मानी जायेगी अथवा किन्हीं निकृ’ट हितों की खातिर कपटी वाक्पटुता.
फिर, विधिविज्ञान किसी समाज के रीति-रिवाजों की अनदेखी करने की सलाह नहीं देता है. कानून समाज के लिए है समाज कानून के लिए नहीं बना है. यह इस विज्ञान की मान्यता रही है. संविधान व कानून हर दिन बदले जाते है।. समाज की मान्यताएं अपनी अन्तरनिहित प्रक्रिया से बदलते हैं, किसी के दबाव में जब इन्हे बदला जाता है तो समाज में विस्फोट की सामग्री तैयार होती है. वर्तमान ‘ाादी-विवाह का कानून, यदि विवाह सम्बंधी परम्पराओं ;बनेजवउेद्ध की अनदेखी करता है तो ओच्छा है, उसे बदलने की आव”यकता है. इस कानून के अनुसार किसी समाज या समुदाय को बदलने की नसीहत बेसिरपैर का आग्रह है .और किसी जीवन्त समाज के मौलिक हक का अतिक्रमण.
”ाादी-विवाह पहले भी होते थे, अब गांव या भाईचारे के गुहाण्ड में विवाह करने के किसी दुराग्रह का कुछ संतो’ाजनक कारण नहीं है, जहां भाईचारे की मान्यता के चलते गांव की बेटी सब की बहन या बेटी का आधार उसे टिकाÅ बनाता है. बहन या बेटी के साथ विवाह की वकालत बेहुदा तर्क व बीमार सोच को जाहिर करती है. इस मान्यता को तोड़ने अथवा मलियामेट करने में क्या आधुनिकता है, समझ से बाहर की बात है. इस मान्यता के उलट आचरण को किसी का हक नहीं बताया जा सकता है, न यह कभी व्यक्ति स्वतन्त्रता का सवाल ही बन सकता है. कोई कानून कहे तब भी नहीं. ऐसे विधिविज्ञान का तत्व किसी के पास है तो खुलकर बताए.
सामाजिक वर्जनाओं को मान कर चलने से सामाजिक तानाबाना कहीं टूट कर नहीं गिर पड़ा था कि इन्हें लांघने की आव”यकता आ खड़ी हो और चाचा-ताÅ अथवा भाई-भतीजे की लड़की को भगा ले जाने अथवा ‘ाादी करने की मजबूरी खड़ी हो चली हो. ऐसा कुछ नहीं है, ऐसे में जिनसे समाज को राह दिखाने की आस हो ऐसे बुद्धिजीवि तबके से मलिन आचरण के बचाव की वकालत वर्तमान अभियान का दुखद पहलू है.
क्या इसे नौजवानी का मात्र लम्पट आचरण मान कर हाथ धो लिया जाए? मामला इतना सपाट नहीं है. यह गिरावट ग्रामीण समाज में रि”तों की टूटन को जाहिर करती है जो वर्’ा १९४८ में छेड़े गए उस अभियान का फल है जिसका जिक्र संविधान का प्रारूप पे“ा करते हुए बखान हुआ था, लेकिन उचित नाटिस नहीं लिया. यह उस चरम व स्वार्थी व्यक्तिवाद की परिणति है जिसे पूंजीवाद और औद्योगिक-व्यापारिक सभ्यता के फलने-फूलने की पहली ‘ार्त माना जाता है! इस पहलू को अनदेखा करने के अपने खतरे हैं जिनका खमियाजा समाज अब भुगतने को अभि”ाप्त है. यह उस लम्पट व्यवहार का दर्”ान है जिसमें व्यक्ति को व्यक्ति स्वार्थ से Åपर कोई हित दिखाई नहीं देता है. खाप व्यवस्था के विरुद्ध और घर-परिवार की वर्जनाओं के सवाल पर वर्तमान अभियान के संचालको द्वारा व्यक्ति स्वतन्त्रता की दुहाई इस स्वार्थी आचरण को हवा देने के काम आ रही है. क्या इस खतरे को नजरंदाज किया जा सकता है? प्र”न इस प्रकृति का है.
गोत्र व खाप व्यवस्था पर ताजा हमलों को कुछ गोत्र विवाह सम्बंधी विवादों से हवा मिली है. इनमें हरयाणा के गांव जौणधी व आसण्डा से लेकर अब जिला झज्जर के गांव ढ़राणा तक के ताजा विवादों से दु:खदायी स्थिति बनी. इससे निपटने में स्वयं ग्रामीण समाज सक्षम रहा है. ऐसे प्रयास भी हुए हैं. लेकिन, चूंकि समाज के ऐसे मामलों में सुधार की मुहिम धीमी गति से चलती है और नई रीत डालने में समय लगता है, तभी वह रिवाज बनता है. इसलिए, इन प्रयासों के बावजूद सम्बंधित बिरादरी में कुछेक विवाद बीते दिनों उभरकर आए. तब भी, इन तत्वों ने इसे तूल देकर अपना अभियान चलाने का अच्छा अवसर समझा है और यह मांग उठाई है कि समाज की खाप व्यवस्था पर ही कानूनी पाबन्दी लगाई जाए. देखना है कि इन विवादों की आड़ में इस तरह की मांग कहां तक न्याय संगत है और इसका लक्ष्य क्या है.
इन मामलों से उपजे सवाल महत्वपूर्ण हो गए हैं और अब खाप व्यवस्था पर आए हमले से स्थिति ऐसी बनती जा रही है कि चुप रहना घातक होगा तथा कुछ बातों को साफ करना अत्यन्त जरूरी हो गया है. इस सन्दर्भ में अन्य बातों के अतिरिक्त मुख्यतया निम्नलिखित पहलुओं पर विस्तार से विचार करने का समय है :-
१. खाप पंचायतों का स्वरूप, तानाबाना @ कार्य”ौली।
२. परम्परागत रीति-रिवाज बनाम आधुनिकता
३. पंचायती फैसले बनाम कानून
४. खाप पंचायतों की वर्तमान में प्रासांगिकता
इन पहलुओं पर कुछ विस्तार से चर्चा की आव”यकता है ताकि खाप सम्बंधी सवाल पर समझ साफ हो. वर्तमान विवाद एक समुदाय वि”ो’ा से सम्बंधित खाप से है जबकि खाप का दूसरा स्वरूप क्षेत्रीय व सर्व-समुदायों का है. इन खापों का स्वरूप सामाजिक है.
खापों पर आधारभूत विवेचना से पहले इस आन्तरिक युद्ध की जड़ में एक मौलिक प्र”न पर पहले बात स्प’टता चाहती है. जब अंग्रेज+ ”ाासक यहां से जाने लगे तो ‘स्वतन्त्र’ भारत के लिए संविधान बनाने की खातिर ‘संविधान सभा’ गठित हुई. स्वतन्त्र भारत का संविधान कैसा होगा इस पर सभा में पहले दौर की बहस चली. इनमें अनेक सदस्य ऐसे थे जिन्हें ”ाायद पता नहीं था कि इस बनने वाले संविधान की सीमा पहले ही, अंग्रेज+ों के साथ मिलकर, खींची जा चुकी है. बहस में स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान उठे अनेक सवालों का हवाला देकर ऐसे सदस्यों ने स्वराज हासिल करने के अनेक सुझाव दिये. बड़े-बड़े विद्वानों को लेकर जो ड्रªाफ्टिंग कमेटी बनी उसकी मंजूरी से विचार के लिए संविधान को पे”ा करते हुए विधिमन्त्री ने बड़े गर्व से कहा कि ßमुझे तो प्रसन्नता है कि विधान के मसविदे में ग्राम को अलग फैंक दिया गया है और व्यक्ति को रा’ट्र का अंग माना गया है.Þ ( संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट हिंदी संस्करण, मसौदे पर प्रस्ताव. पृ’ठ ७७, पुस्तक सं ३ दिन्नांक ४.११.१९४८) भारत के मर्म को बदलने के लिए यह एक बहुत गम्भीर वैधानिक उलटफेर की खुली घो’ाणा थी जिसकी ”ाुरुआत अंग्रेज ”ाासकों ने सन् १८५७ के बाद से आरम्भ कर दी थी.
इस कथन का सीधा सा अर्थ था कि स्वतन्त्र भारत का भवि’य उद्योग-व्यापार की ब्रिटि“ा कल्चर पर खड़ा होगा, जिसमंे परिवार को कोई वैधानिक मान्यता नहीं होगी. इस घो’ाणा की संविधान सभा में तीव्र प्रतिक्रिया भी हुई. एक सदस्य प्रोफ. ”िाब्बनलाल सक्सेना ने तो यहां तक कह दिया कि ‘यह सब सुन कर मुझे दुख हुआ कि विधि मंत्री उस प्रणाली से घृणा करते हें, जिसमें ग्रामों की इच्छा सर्वोपरि मानी जाती है. मेरे विचार से हमें उस भाग का उचित सं”ाोधन करना पड़ेगा’ (वही पृ’ठ ११०, दिन्नांक ५.११.१९४८) श्री एच.वी.कामथ ने कहा कि "कल का उनका भा’ाण एक प्रतिभा”ााली नगर निवासी के समान था और यदि ग्राम निवासियों की ओर हमारा यही रुख रहा, तो मैं केवल यही कह सकता हूं कि ‘ई”वर ही हमारी रक्षा करे. कदाचित मसौदा समिति बनाने में ही गलती हुई. उसकी समिति में केवल एक श्री मुं”ाी के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा सदस्य नहीं था, जिसने अपने दे”ा की स्वतन्त्रता के संघर्’ा में प्रमुख भाग लिया हो. मेरा वि”वास है कि वह दिन अब दूर नहीं है, जब कि केवल भारत को ही नहीं, वरन समस्त संसार को यदि वह ”ाांति, सुरक्षा, सुख तथा सम्पन्नता चाहता है, विकेन्दी्रकरण करना होगा और ग्राम जनतन्त्र तथा नगर जनतन्त्र स्थापित करने पड़ेंगे और इसी आधार पर उनको अपने राज्य का निर्माण करना पड़ेगा; अन्यथा संसार घोर विपत्ति के ”िाकंजे में फंस जायगा. (वही, पृ’ठ ११७-११९ दिनांक ५.११.१९४८) एक सदस्य एच.वी.कामथ ने कहा कि आजाद भारत के लिए ßहमने वीणा या सितार की धुन चाही थी किन्तु यहां तो हमें ब्रिटि”ा बैंड का संगीत परोसा गया है. यह इसलिए हुआ क्योंकि हमारे संविधान निर्माता उसी ढंग से ”िाक्षित हुए हैं. मैं उन्हें दो’ा नहीं देता बल्कि मैं उनको दो’ाी ठहराÅंगा या हममें से उनको जिन्होंने यह काम ऐसे लोगों को करने के लिये सौंपा’.
संविधान की इस कमजोरी पर सदस्यों की तीव्र प्रतिक्रिया से परे”ाान नेताओं ने संविधान में धारा ४० जोड़ कर उन्हें सांत्वना देने के लिए उस समय कहा था कि यह संविधान कोई बाइबल नहीं कि बदलेगा नहीं, हालांकि बाद में इन्हीं नेताओं ने संविधान के बाइबली चरित्र को उभारने का अभियान भी चलाया जिसका जिक्र करके घर-परिवार और उनके आपसी भाईचारे की खाप व्यवस्था के मुकाबले में इन परिवारों के युवा-यवतियों को खड़ा करने के वास्ते ‘व्यक्ति स्वतन्त्रता’ का पाठ पढाने में संविधान का अब हवाला इस तरह दिया जा रहा है जैसे यह परिवार तोड़क संविधान कोई धर्म-पुस्तक हो!
आजाद भारत मेंे परिवार से विछिन्न व्यक्ति को अपने क्रियाकलाप का आधार बनाने के वास्ते इस उलटफेर से यहां की संस्कृति को जो नुकसान हुआ. यदि भवि’य संवारना है तब, उसकी भरपाई के लिए पहले उसके अपने मामलों में राजनीतिक संस्थान के दखल को जीरो करने का काम प्राथमिक महत्व का है. इसके लिए गांव-बस्ती व खाप व्यवस्था को सक्रिय करने के ढंग तला”ाने होंगे और इन्हें समय के प्रभावस्वरूप आई कमजोरयों से मुक्त करना होगा.

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